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________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 323 विकलादेश है। क्योंकि उससे वस्तु के एक धर्म का ही बोध होता है। जैनदृष्टि से वस्तु अनन्त धर्मात्मक है।।33 प्रश्न समुत्पन्न होने पर एक वस्तु में अविरोध भाव से जो एक धर्म विषयक विधि और निषेध की कल्पना की जाती है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है।। 34 सप्तभंगी का अर्थ है - सात प्रकार के भंग विकल्प-वाक्य-विन्यास-बोलने और उत्तर-प्रत्युत्तर की विधि। वस्तुगत अनन्तधर्मों (गुणों-पर्यायों) में से किसी एक के विधिनिषेध, उभयात्मक तथा अवक्तव्य अविरोधात्मक कथन के लिए सप्तभंगी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सात भंगों135 का संक्षिप्त विवेचन - (क) स्यादस्ति (ङ) स्यादस्ति अवक्तव्य (ख) स्यान्नास्ति (च) स्यान्नास्ति अवक्तव्य (ग) स्यादस्ति-नास्ति (छ) स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य।।36 (घ) स्याद् वक्तव्य (क) स्यादस्ति वस्तु स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से है। उदाहरण के लिए -स्यादस्ति घटः है, वर्तमान काल में है, अपने भाव में है, यह "स्यादस्ति है।''137 (ख) स्यान्नास्ति वस्तु पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से नहीं है। उदाहरण के लिए स्यात-नास्तिघटः। अन्य स्थान, यथा-पर्वत पर नहीं है, भूतकाल में नहीं था, अन्य भाव से नहीं है, यह स्यान्नास्ति है।138 (ग) स्यादस्ति नास्ति किसी अपेक्षा से वस्तु है और किसी अपेक्षा से नहीं भी है। जैसे - स्यादस्ति नास्ति घटः। 139 (घ) स्यादवक्तव्य किसी अपेक्षा से वस्तु का कथन नहीं किया जा सकता।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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