SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 307 जीव है। ऐसे दस साधन है, जिनसे व्यक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है - निसर्ग, उपदेश, आज्ञा , सूत्र, बीज, अभिगम, विस्तार, क्रिया, संक्षेप और धर्म।26 सम्यग्दृष्टि वह है जो छह द्रव्य, नवपदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सप्त तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धान करें।27 हिंसा रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और अर्हत् प्रवचन (समीचीन शास्त्र) में जो श्रद्धा है वही सम्यग्दर्शन है और ऐसी दृष्टि वाला सम्यग्दृष्टि है।28 तीर्थंकरों, आगमों और छह द्रव्यों में विश्वास करना सम्यग्दर्शन कहा है।29 नव पदार्थों में दृढ़ निश्चय को सम्यग्दर्शन कहा गया है।30 अमितगति,31 वसुनन्दि 32 नेमिचन्द्र,33 अमृतचन्द्र34 आदि जैसे महान् जैनाचार्यों ने सप्त तत्त्वों और नव पदार्थों पर समीचीन श्रद्धान करने को सम्यग्दर्शन कहते हुए ही अपने ग्रन्थों को प्रारम्भ किया है। ___ यह सम्यग्दर्शन ही मोक्ष प्राप्ति का प्रथम साधन कहा जाता है।35 सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का मूल कारण है,36 सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र नहीं हो सकते। जीवादि सात तत्त्वों का तीन मूढ़ता-देवमूढ़ता लोकमूढ़ता और पाषण्ड मूढ़ता रहित और आठ अंगों पर यथार्थ श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है।37 सम्यग्दर्शन के आठ अंग __ 1. निःशंकित 2. नि:कांक्षित 3. निर्विचिकित्सा 4. अमूढदृष्टि 5. उपगूहन 6. वात्सल्य 7. स्थितिकरण (स्थिरीकरण) 8. प्रभावना।38 1. निःशंकित निःशंकित का अभिप्राय है - तीर्थंकरों के वचनों में, देव शास्त्र गुरु के स्वरूप में किसी प्रकार की भी शंका न करना निःशंकित है। शंका के दो अर्थ किये गये हैं - 1. संदेह, 2. भय। यदि गहराई से देखा जाये तो भय भी शंका से ही उत्पन्न होता है तथा यह अविश्वास का द्योतक है। भय उसी को होता है जिसे अपनी आत्मशक्ति तथा कर्म सिद्धान्त के प्रति पूरा विश्वास नहीं होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव पूर्ण रूप से आत्मविश्वासी होता है। उसके हृदय में न अपनी आत्मशक्ति के प्रति शंका होती है और न जिन प्रवचनों के प्रति।40
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy