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________________ 306 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण सच्चे देव, शास्त्र और यथार्थ पदार्थों पर अत्यन्त श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन कहलाता है। जीवाजीवादि तत्त्वों में प्रगाढ़ निष्ठा रखना ही सम्यग्दर्शन है अर्थात् स्वयं और दूसरे के उपदेश से जीवादि सात तत्त्वों में यथार्थ श्रद्धान करना ही सम्यक्दर्शन कहलाता है।18 वीतराग सर्वज्ञदेव, आप्तोपज्ञ, आगम ओर जीवादि पदार्थों पर अटूट निष्ठा करना ही सम्यग्दर्शन माना गया है। यह सम्यग्दर्शन ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का मूल कारण है। सम्यग्दर्शन का तात्पर्य है जैन दर्शन में निर्दिष्ट सप्त या नव तत्त्वों पर विश्वास करना। यहाँ श्रद्धा अथवा विश्वास का तात्पर्य अन्धश्रद्धा से नहीं अपितु सम्यक् दृष्टि से है। तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना ही सम्यर्शन कहा गया है।20 सम्यग्दर्शन स्वभाव और परोपदेश दोनों से होता है। यह दो प्रकार का होता है - 1. निसर्गज, 2. अधिगमज - निसर्ग का अर्थ है परिणाम मात्र। जो सम्यग्दर्शन जीव के स्वयं के परिणाम (आन्तरिक भाव) के निमित्त ही उत्पन्न होता है। वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसमें पर के उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। अधिगमज सम्यक्त्व वह कहलाता है, जिसमें पर अर्थात् किसी अन्य साधु-साध्वी, शास्त्र स्वाध्याय आदि निमित्त की अपेक्षा रहती है। दूसरे शब्दों में, अधिगमज सम्यक्त्व किसी दूसरे का निमित्त पाकर उत्पन्न होता है।21 उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन को एक प्रकार का ज्ञान कहा है। सम्यग्दर्शन चेतना की वह विशुद्धावस्था है, जो पदार्थ को यथावत् जानने की शक्ति देती है। यह ऐसी अवस्था है जहाँ मिथ्यादर्शन नहीं रहता। यह सम्यग्ज्ञान की भूमिका है।22 जिस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया हो, वह तीन प्रकार की मूढ़ताओं, अन्धविश्वासों और आठ प्रकार के मदों से मुक्त हो जाता। उसे आठ प्रकार के अंगों से युक्त होना चाहिए।23 तीन प्रकार की मूढताएँ हैं - लोक मूढ़ता, देवमूढ़ता और पाखण्डी मूढ़ता। आठ प्रकार के मद, जाति, कुल, बल, रूप, तप, ऋद्धि, ज्ञान और पूजा।4 सम्यग्दर्शन के आठ अंग - नि:शंकित. निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना है।25 जिसे दुरभिनिवेश रहित पदार्थों का श्रद्धान हो अथवा स्वात्म प्रत्यक्ष पूर्वक स्व-पर भेद का या कर्त्तव्य-अकर्तव्य का विवेक हो, वह सम्यग्दृष्टि
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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