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________________ 298 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 484. गोचराग्रगता योग्यं भुक्त्वान्नमविलम्बितम्। प्रत्याख्याय पुनर्वीरा निर्ययुस्ते तपोवनम्।। तपस्तापतनु भूततनवोऽपि मुनीश्वराः। अनुबद्धात्तपो योगान्न चेलुर्द्धढसङ्गराः।। - आ.पु. 34.207-208 485. वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः। चतुर्धा वर्णिता दत्तिः दर्यापात्रसमान्वयैः।। - आ.पु. 38.35 486. सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवुन्देऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः।। आ.पु. 38.36 487. महातपोधनायार्चाप्रतिग्रहपुर:सरम्। प्रदानमशनादीनांपात्र दानं तदिष्यते।। आ.पु. 38.37 488. समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रव्रतादिभिः। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम्।। आ.पु. 38.38 489. समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयाऽन्विता।। - आ.पु. 38.39 490. दे. (आप्टे) संस्कृत हिन्दी कोष, पृ. 993 491. सावद्यविरतिं कृत्स्नामूरीकृत्य प्रबुद्धधीः। तभेदान् पालयामासव्रतसंज्ञाविशेषितान्।। - आ.पु. 20.158 .. 492. हिंसाऽनृत्स्तेया ऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्। - त.सू. 7.1 493. व्रतमभिसंधिकृतो नियमः, इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति वा। - स.सि. 7.1.342.6 सर्वनिवृत्तिपरिणाम:। --- प.प्र. 2.52.172.5 (टी) 494. संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमों शुभकर्मणः। निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणे।। - सा.ध.2.80 495. उपा.सू. 26-316. 496. महच्चाणु च दोषाणां कृत्स्नदेशनिवृत्तितः। - आ.पु. 39.3 497. जै.सि.को. - (भा. 3) पृ. 633 498. स्था. सू. 2.1.107; त. सू. 7.14 499. व्रता बिष्करणं दीक्षा द्विद्याम्नातं च तद्वतम्। - आ.पु. 39.3 500. देशसर्वतोऽणुमहती। - त.सू. 7.2 501. महाव्रतं भवेत् कृत्स्नहिंसाद्यागोविवर्जितम्। ...आ.पु. 39.4 502. त.सू. (के.मु.) 7.2 (टीका) 503. वही। 504. विरतिः स्थूलहिंसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम्। .... आ.पु. 39.4 505. वही।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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