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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
484. गोचराग्रगता योग्यं भुक्त्वान्नमविलम्बितम्।
प्रत्याख्याय पुनर्वीरा निर्ययुस्ते तपोवनम्।। तपस्तापतनु भूततनवोऽपि मुनीश्वराः। अनुबद्धात्तपो योगान्न चेलुर्द्धढसङ्गराः।।
- आ.पु. 34.207-208 485. वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः। चतुर्धा वर्णिता दत्तिः दर्यापात्रसमान्वयैः।।
- आ.पु. 38.35 486. सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवुन्देऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः।।
आ.पु. 38.36 487. महातपोधनायार्चाप्रतिग्रहपुर:सरम्। प्रदानमशनादीनांपात्र दानं तदिष्यते।।
आ.पु. 38.37 488. समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रव्रतादिभिः। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम्।।
आ.पु. 38.38 489. समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयाऽन्विता।।
- आ.पु. 38.39 490. दे. (आप्टे) संस्कृत हिन्दी कोष, पृ. 993 491. सावद्यविरतिं कृत्स्नामूरीकृत्य प्रबुद्धधीः। तभेदान् पालयामासव्रतसंज्ञाविशेषितान्।।
- आ.पु. 20.158 .. 492. हिंसाऽनृत्स्तेया ऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्।
- त.सू. 7.1 493. व्रतमभिसंधिकृतो नियमः, इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति वा। - स.सि. 7.1.342.6 सर्वनिवृत्तिपरिणाम:।
--- प.प्र. 2.52.172.5 (टी) 494. संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमों शुभकर्मणः। निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणे।।
- सा.ध.2.80 495. उपा.सू. 26-316. 496. महच्चाणु च दोषाणां कृत्स्नदेशनिवृत्तितः।
- आ.पु. 39.3 497. जै.सि.को. - (भा. 3) पृ. 633 498. स्था. सू. 2.1.107; त. सू. 7.14 499. व्रता बिष्करणं दीक्षा द्विद्याम्नातं च तद्वतम्।
- आ.पु. 39.3 500. देशसर्वतोऽणुमहती।
- त.सू. 7.2 501. महाव्रतं भवेत् कृत्स्नहिंसाद्यागोविवर्जितम्।
...आ.पु. 39.4 502. त.सू. (के.मु.) 7.2 (टीका) 503. वही। 504. विरतिः स्थूलहिंसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम्।
.... आ.पु. 39.4 505. वही।