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________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 287 प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्। - त.सू. 9.20 265. आ.पु. 20.190; प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम्। - धर्म. सं.3, अधि; अपराधो वा प्रायः चित्तं शुद्धिः प्रायस्-चित्त-प्रायश्चित्तं-अपराधविशुद्धिः। - रा.वा. 9.22.1; त.सू. (के.मु.) 9.20 (वि.) 266. आ.पु. 20.191; त.सू. 9.20 (वि.) 267. जै.ध. एक अनु. (डा. रा.मु.) - पृ. 32 (तत्त्वखण्ड); आ.पु. 20.191 268. आ.पु. 20.194, त.सू. (के.मु.) 9.20 वि. 269. जै.द.स्व और वि. - (दे.मु.) .. पृ. 217; आ.पु. 20.193 270. त.सू. - (के.मु.) 9.20 (वि.) 271. त.सू. - (के.मु.) 9.20 (वि.) 272. विविक्तेषु वनान्नाद्रिकुञ्जप्रेतवनादिषु। मुहुर्युत्सृष्टकायस्य व्युत्सर्गाख्यमभूत्तपः।। देहाद् विविक्तमात्मानं पश्यन्गुप्तित्रयीं श्रित:। व्युत्सर्ग स तपो भेजे स्वस्मिन् गात्रेऽपि निस्पृहः।। - आ.पु. 20.200-201; त.सू. 9.20 वि. 273. गमनाभोजनशयनाध्ययनादिषु क्रियाविशेषेषु अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः क्रियायाः कर्तृत्वेनावस्थानं निरोध इत्यवगम्यते ...। - रा.वा. 9.27.5.624.29 274. एकाग्रयेण निरोधो यश्चित्तस्यैकत्र वस्तुनि। -- आ.पु. 21.8 275. ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्ययसंततिः। अभि. चिन्ता. को. 1.48 276. चित्तस्सेगग्गया हवइ झाण। -- आ.नि. 14.56 277. संहनन का लक्षण - यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनन नाम- जिसके उदय से अस्थियों का बन्धन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। -- स.सि. 8.11.390.5 संहनन के भेद - जो शरीर सहनन नामकर्म है, वह छह प्रकार का है - (क) वज्र ऋषभ नाराच शरीर संहनन नामकर्म (ख) वज्रनाराच शरीर संहनन नामकर्म (ग) नाराच शरीर संहनन नामकर्म (घ) अर्धनाराच शरीर संहनन नामकर्म (ङ) कीलक शरीर संहनन नामकर्म (च) असंप्राप्त सृपारिका शरीर संहनन नामकर्म . ष.खं., आ. 6.1,9-1 सू. 36-73
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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