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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 259
महात्माओं का शरीर कृश हो गया है, वे केवल शरीर की स्थिति के लिए ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन न मिलने पर दोषयुक्त आहार की कभी मन में भी इच्छा नहीं करते।483 भोजन को ग्रहण करके वे साधक तपस्वी मुनिराज फिर तप में लीन हो जाते हैं। कठिन तपस्या करने पर यदि मुनिराज का शरीर कृश हो गया है फिर भी साधक दृढ़ प्रतिज्ञा से ग्रहण किये हुए तप को करता है। बीच में छोड़ता या विराम नहीं देता। कहने का तात्पर्य यह है कि साधक जन शरीर की परवाह न करते हुए तप को दृढ़तापूर्वक पूर्ण करते हैं।484
दत्ति
गृहस्थ धर्म में दान के अत्यधिक महत्त्व पर अंग/आगमों में प्रकाश डाला गया है। यह दान दो प्रकार का है-लौकिक और अलौकिक। अलौकिक दान के पात्र साधु लोग हैं तो लौकिक दान के पात्र साधारण व्यक्ति होते हैं। यह लौकिक दान जो कि "दत्ति'- शब्द से प्रचलित हैं, चार प्रकार का होता है -
1. दया दत्ति, 2. पात्र दत्ति, 3. समदत्ति, 4. अन्वय दत्ति (सकल दत्ति)।485
1. दया दत्ति
अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को पण्डित लोग दयादत्ति मानते हैं।486 2. पात्र दत्ति
महातपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है, उसे पात्र दान कहते हैं।487
3. समदत्ति
क्रियामन्त्र और व्रतादि से जो अपने समान है तथा जो संसार-समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है, उसके लिए पृथ्वी-सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिये समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समान या सम दत्ति कहलाता है।488
4. सकल दत्ति
अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुलपद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करने को सकल दत्ति कहते हैं।"