________________
240
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
की सिद्धि के लिए मन्द-मन्द श्वास लेना है। पलकों के लगने उघड़ने आदि का निषेध नहीं है।354
ध्यान में साधक को पर्यंक आसन के समान कायोत्सर्ग आसन करने की भी आज्ञा है। कायोत्सर्ग और पर्यंक ये दो सुखासन हैं और उन दोनों में भी पर्यंक आसन अधिक सुखकर माना जाता है। जिनका शरीर वज्रमयी है और जो महाशक्तिशाली है ऐसे पुरुष सभी आसनों में विराजमान होकर ध्यान के बल से अविनाशी पद मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। कायोत्सर्ग और पर्यंक ये दो आसनों का निरूपण असमर्थ जीवों की अधिकता से किया गया है। जो उपसर्ग आदि के सहन करने में अत्यन्त समर्थ हैं ऐसे मुनियों के लिए अनेक प्रकार के आसनों के लगाने में कोई दोष नहीं है। इसके अतिरिक्त - वीरासन, वज्रासन, गोदोहासन, धनुरासन आदि अनेक आसन लगाने में कायक्लेश नामक तप की सिद्धि होती है परन्तु तप शक्ति अनुसार किया जाता है।
शरीर की स्थिति को देखकर ही साधक को ध्यान करना चाहिए। ध्यान लेटकर, खड़े होकर, बैठकर भी कर सकते हैं। हीन शक्ति धारक के लिए देश, काल, स्थान, आसन का नियम कहा गया है। पूर्णशक्ति के धारक के लिए देश, काल, स्थान, आसन का नियम कहा गया है। पूर्णशक्ति के धारक के लिए देश, काल, स्थान, आसन का कोई नियम नहीं। जो मुनि जिस समय, जिस देश में और जिस आसन में ध्यान को प्राप्त होता है वही उस मुनि के लिए उपयुक्त माना जाता है।355
ध्याता का लक्षण
जो साधक वज्रवृषभ नाराच संहनन नामक शरीर के धारक है तपश्चरण करने में अत्यन्त शूर-वीर है और जिस बुद्धिमान् योगी ने शास्त्रों के अर्थ का बार-बार चिन्तन-मनन किया है और जो अनेक परीषहों को सहन कर सकता है ऐसे उत्तम गुणों से युक्त ही वास्तविक ध्याता होता है।356
ध्यान में ध्येय वस्तु और उसका फल
जिस शब्द के आदि में अकार है, अन्त में हकार है, मध्य में रेफ है और अन्त में बिन्दु है ऐसे अहँ इस उत्कृष्ट बीजाक्षर का ध्यान करना चाहिए। इसका ध्यान करने से साधक कभी भी दुःखी नहीं होता अथवा अर्हद्भ्यो नमः -- अर्हन्तों के लिए नमस्कार। ऐसा ध्यान कर मोक्ष की अभिलाषा रखने वाला साधक अनन्त गुणों से युक्त अर्हन्त अवस्था को प्राप्त होता है। 57