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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण शुक्लध्यान का स्वामी होता है। तात्पर्य यह है - परम शुक्लध्यान केवली भगवान को ही होता है।
केवलज्ञानी जब योगों का निरोध करने के लिए तत्पर होते हैं तब वे उसके पहले स्वभाव से ही समुद्घात करते हैं।346 पहले समय में उनके आत्मा के प्रदेश चौदह राजू ऊँचे दण्ड के आकार होते दूसरे समय में किवाड़ के आकार होते हैं, तीसरे समय में प्रतर रूप होते हैं और चौथे समय में समस्त लोक में भर जाते हैं। वे चार समय में समस्त लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित होते हैं उसके बाद वे रेचक अवस्था को प्राप्त होते हैं अर्थात् आत्मा के प्रदेशों का संकोच करते हैं समस्त को पूर्ण कर उसके एक-एक समय बाद ही प्रतर क्रम से एक-एक समय बाद संकोच करते हुए कपाट तथा दण्ड अवस्था को प्राप्त कर स्वशरीर में प्रविष्ट हो जाते है। पहले दो शुक्ल ध्यानों का क्षय कर देते हैं इसे समुद्घात कहते है।347 तत्त्वार्थकार बताते है कि पहले समय में उनके आत्म के प्रदेश चौदह राजू ऊँचे दण्ड के आकार होते हैं। दूसरे समय में चौड़ाई में फैलाते है। तीसरे समय में मथानी के आकार के बनाते हैं और चौथे समय में लोक में व्याप्त कर देते हैं। फिर विपरीत क्रिया शुरु होती है। पाँचवें समय में मथानी के आकार के छठे समय में चौड़ाई के, सातवें समय में दण्डाकार और आठवें समय में आत्म प्रदेशों को अपने शरीर के मूलाकार रूप में बना लेते हैं।
जिस प्रकार प्रसारण और संकुचन की क्रिया से वस्त्र में लगे रज कण गिर जाते हैं, अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार इस समुद्घात क्रिया से आत्म प्रदेशों से सम्बद्ध कर्म पुद्गल भी झड़ जाते हैं, पृथक् हो जाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में सिर्फ आठ समय लगते हैं। केवली भगवान द्वारा किये जाने के कारण यह समुद्घात केवली समुद्घात कहलाता है।348
इस परम शुक्लध्यान के दो भेद हैं - 1. सूक्ष्मक्रियापाति, 2. समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति।349
(ग) सूक्ष्म क्रियापाति शुक्लध्यान
जब केवली भगवान सूक्ष्मकाया योग का अवलम्बन लेकर शेष योगों का निरोध कर देते हैं तब श्वासोच्छावास की सूक्ष्मक्रिया ही शेष रह जाती है। उस समय की आत्म परिणति का नाम सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती अप्रतिपाति इसलिए कि वहां से फिर पतन नहीं होता। योगरूपी आस्रव का निरोध करते हुए काययोग के आश्रय से वचन योग और मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं और फिर