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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप,....
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11. द्वेष
गुणपुंज को अवगुणपुंज समझना ही द्वेष है अथवा जिसमें क्रोध और मान अप्रकट भाव से विद्यमान हों, ऐसी अप्रीति रूप जीव का अवगुण विशेष द्वेष कहलाता है। 28
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12. कलह झगड़ा, फसाद करना, विवाद - वितण्डावाद करना, कलह है, शान्ति में न स्वयं रहना और न दूसरों को रहने देना कलह है। 29 13. अभ्याख्यान किसी पर झूठा कलंक का आरोप करना अभ्याख्यान
है। 30
14. पैशुन्य परोक्ष में किसी के दोष प्रकट करना अर्थात् पीठ पीछे गुप्तचरी करना या चुगली करना पैशून्य है | |
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15. परपरिवाद दूसरों की निन्दा करना । निन्दा का अर्थ है - सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धि से प्रकट करने की वृत्ति ही परपरिवाद है | 32 16. रतिअरति रति का अर्थ है सुन्दर वस्तुओं ( पदार्थों) के प्रति राग “करना रति है। रति से विपरीत अरति है अर्थात् असुन्दर के प्रति द्वेष करना अरति है अर्थात् पाप में रुचि और पुण्य में अरुचि रखना अरति है। 33
समीक्षा
17. मायामृषा
माया का अर्थ कपट, मृषा का अर्थ झूठ अर्थात् कपटपूर्वक असत्य बोलना, वेष परिवर्तन कर लोगों को छलना, झूठी गवाही देना इत्यादि मायामृषा के रूप हैं । 34
18. मिथ्यादर्शन शल्य जो सम्यग्दर्शन से विपरीत है वह मिथ्यादर्शन कहलाता है अर्थात् जीवादि तत्त्वों और देव, गुरु, धर्म आदि के प्रति श्रद्धा न करना, विपरीत श्रद्धा रखना ही मिथ्यादर्शन शल्य है। 35
मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया से आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है। उससे कर्म-परमाणु आत्मा की ओर खिंचते हैं। क्रिया शुभ होती है तो शुभकर्म परमाणु होते हैं और क्रिया अशुभ होती है तो अशुभ कर्म परमाणु आत्मा से आ चिपकते हैं। पुण्य और पाप दोनों विजातीय तत्त्व हैं। इसलिए ये दोनों आत्मा की परतन्त्रता के हेतु हैं। आचार्यों ने पुण्य कर्म को सोने और पाप-कर्म को लोहे की बेड़ी से तुलना की है।