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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
81. वही, गा. 23 82. वही, पृ. 97 83. स्था.सू. 2.4.105 (वि.) 84. कर्म.ग्र. (दे.सू.) भा. 1, पृ. 98 85. आ.पु. 18.74 86. कर्म.ग्र. (दे.सू.) भा. 1, गा. 52, पृ. 151 87. वही; उच्चैर्नीचैश्च
- त.सू. 8.13 88. कर्म.ग्र. (दे.सू.) भा. 1, गा. 52, पृ. 152; उत्तरा सू. 23.14 89. वही; उत्तरा सू. 23.14 90. स्था.सू 2.4.105 (वि.); कर्म.ग्र. (म.मु.) भा. 1, पृ. 153 91. त.सू. 8.14 वि.; प्रज्ञा पद 23, उ.2, सू. 293 92. त.सू., (के.मु.) 8.14 वि. 93. त.सू. (के.मु.) 8.14 वि. 94. वही। 95. वही। 96. वही। 97. समूलोत्तरभेदेन कर्माण्युक्तानि कोविदैः।
-- आ.पु. 47.311 98. रा.वा. 1.4.10
99. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त स बन्धः। - त.सू. 8.2 100. स.सा. 262 101. मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात्। स एवाध्यवसायो यमज्ञानात्मास्य दृश्यते।।
- स.सा. आत्मख्याति, 170 102. मातापितृस्नेहसम्बन्धः नो कर्मबन्धः।।
- रा.वा.,8 103. द्र.सं. 33 104. वही। 105. बन्धश्चतुर्विधो ज्ञेयः प्रकृत्यादिविकल्पितः।
- आ.पु. 47.312 प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः।।
-- त.सू. 8.4 106. त.सू. (के.मु.) 8.4 (वि) कर्म.ग्र. भा. 1, सू. 2 (विशेषार्थ) 107. आवरणमोहविघ्नं घाति जीवगुणघातनत्वात्। आयुष्कनाम गोत्रं वेदनीयं तथा अघातीति।।
गो. सा. (कर्म.का.) गा. 9 108. त.सू. (के.मु.) 8.4 (वि);
कर्म.ग्रा. (भा. 1) सू. 2 (विशेषार्थ)