SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श 147 - आ.पु. 11.161-162 - आ.पु. 13.17 - आ.पु. 9.106 पूर्वोक्तसप्रवीचारसुखानन्तगुणात्मकम्। सुखमव्याहतं तेषां शुभकर्मोदयोद्भवम्।। 112. अथ सौधर्मकल्पेशो महैरावतदन्तिनम्। समारुहय समं शाम्या प्रस्थे विबुधैर्वृतः।। 113. ति.प. 8.407-408 114. जै.त.प्र. - (अ.ऋ.जी.) पृ. 103 115. प्र.सू. "यु.मधु.मु., द्वि.स्था. पृ. 173-174 116. आ.पु. 13.17 117. स्था.सू. 8.1.23 118. जै.त.प्र. - (अ.ऋ.जी.) पृ. 103-104 119. वही, पृ. 107 120. वही 121. त्ववियोगादहं जातनिर्वेदो बोधमाश्रितः। दीक्षित्वाऽभूवमुत्सृष्टदेहः सौधर्मकल्पजः।। 122. जै.त.प्र. - (अ.ऋ.जी.) पृ. 103 123. वही - (अ.ऋ.जी.) पृ. 103 124. वही - पृ. 104 125. जै.त.प्र. - (अ.ऋ.जी.), पृ. 108 126. आ.पु. 5.232, 5.247-254 127. कल्पेऽनल्पर्खिरैशाने श्रीप्रभाधिपसंयुता। भोगान् भुक्त्वात्र जातेति कथापर्यवसानकम्।। 128. जै.त.प्र. - (अ.ऋ.जी.), पृ. 107 129. वही. - पृ. 104-107 130. कृत्वानशनसञ्चर्यामवमोदर्यमप्यदः। यथोचितनियोगेन योगेनान्तेऽत्यजत् तनुम्।। माहेन्द्रकल्पेऽनल्पद्धिरभूदेष सुराग्रणी:। अणिमादिगुणोपेतः सप्ताम्बुधिमितस्थितिः।। त्यक्ताहारशरीरः सन्नुद्याने प्रीतिवर्द्धने। संन्यासविधिनाऽजाये कल्पे माहेन्द्रसंज्ञिके।। 131. जै.त.प्र.-(अ.ऋ.जी.) पृ. 104 132. आ.पु. 10.113-1153B जयसेन श्रुतिर्बुद्ध्वा विवाहसमये सुरात्। श्रीधराख्यात् प्रवब्राज गुरुं यमधर श्रितः।। - आ.पु. 6.159 - आ.पु. 5.142-143; - आ.पु. 7.11
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy