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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
53. जै.द. (मो.ल.मे.), पृ. 160 54. वही। 55. वही। 56. वही। 57. आ.पु. 24.101 58. भेदग्रहणमाकारः प्रतिकर्मव्यवस्थया।
सामान्यमात्रनिर्भासादनाकारं त दर्शनम।। 59. जै.द. (मो.ल.मे.), पृ. 162 60. वही। 61. वही।
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आ.पु. 24.102
62. वही।
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आ.पु., 24.92
- आ.पु.. 24.93
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आ.पु. 24.109-110, 127
63. वही। 64. चेतना लक्षणो जीवः सोऽनादि निधन स्थितिः।
ज्ञाता द्रष्टा च कर्ता च भोक्ता देह प्रमाणकः।। 65. गुणवान् कर्मनिर्मुक्तावूर्ध्व व्रज्यास्वभावकः।
परिणन्तोपसंहार विसर्पाभ्यां प्रदीपवत्।। 66. शाश्वतोऽयं भवेज्जीवः पर्यायस्तु पृथक्-पृथक्।
मृदद्रव्यस्येव पर्यायैस्तस्योत्पत्ति विपत्तयः।। अभूत्वाभाव उत्पादो भूत्वा चाभवनं व्ययः।
ध्रौव्यं तु तादवस्थ्यं स्यादेवमात्मा त्रिलक्षणः।। 67. जै.द., न्या.वि.श्री, पृ. 5 68. सति धर्मिणि धर्मस्य घटते देव चिन्तनम्।
स एव तावन्नास्त्यात्मा कुतो धर्मफलं भजेत्।। 69. पृथिव्यप्पवनाग्नीनां संघातादिह चेतना।
प्रादुर्भवति मद्याङ्गसंगमान्मदशक्तिवत्।। 70. ततो न चेतना कायतत्त्वात् पृथगिहास्ति नः।
तस्यास्तद्व्यति रेकॅणानुपलब्धेः खपुष्पवत्।। 71. ततो न धर्मः पापं वा परलोकश्च कस्यचित्।
जलबुबुदवज्जीवा विलीयन्ते तनुक्षयात्।। तस्माद् दृष्टसुख त्यक्त्वा परलोकसुखार्थिनः। व्यर्थक्लेशा भवन्त्येते लोकद्वयसुखाच्च्युताः।। तदेषां परलोकार्था समीहा क्रोष्टु रामिषम्। त्यक्त्वा मुखागतं मोहान् मीनाशोत्पतनायते।।
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आ.पु., 5.29
- आ.पु., 5.30
- आ.पु. 5.31
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आ.पु. 5.32
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आ.पु. 5.33-34