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________________ पंचमः सर्गः अन्येधुरादाय सिताक्षसूत्रं पर्यङ्कमास्थाय गुहोदरस्थः । ध्यानं न यावद्विदेधाति सम्यक विद्यागणस्तावदभूत्तदग्रे॥२७ कृतार्थतामेत्य सुराचलस्य जिनालयान्सानुगतान्प्रणम्य । प्रदक्षिणीकृत्य च पाण्डकाख्यां शिलां प्रपूज्यैत्य गृहं विवेश ॥२८ चक्रं सहस्रारममोघशक्ति दण्डं स खङ्गं सितमातपत्रम् । प्रापाधिपत्यं भरतार्धलक्ष्म्याः पुण्योदयात्साध्यमहो न कि स्यात् ॥२९ अष्टासहस्राणि षडाहतानि नितम्बिनीनां ललितस्मितानाम् । बभूवुरत्यन्तमनोहराणां प्रोत्तुङ्गपीनस्तनराजितानाम् ॥३० स संयुतः षोडशभिः सहस्त्रैर्महीभुजामुन्नतसाहसानाम् । विद्याप्रभावप्रथितोन्नतानां चकार राज्यं करदीकृताशः ॥३१ प्रमिताक्षरा अथ भारतेऽस्ति विषयोऽत्र वहन्सुरमाभिधां सुरनिवाससमः । विविधोऽपि कान्तिनिवहो जगतः स्वयमेकतां गत इवाप्रतिमः ॥३२ सरसाः समुन्नततया सहिताः स्वयमथिभिः परिगृहीतफलाः । अभवन्नधःकृतसमस्तजनास्तरवोऽपि यत्र सह सत्पुरुषः ॥३३ कलाओं ) के समूह को प्राप्त हो रहा था ऐसा वह बालकरूपी चन्द्रमा दिन-प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने लगा ॥ २६ ॥ किसी दिन गुहा के मध्य में स्थित अश्वग्रीव श्वेत रङ्ग की जपमाला लेकर तथा पद्मासन से बैठ कर जब तक सम्यक् प्रकार से ध्यान नहीं करता है तब तक अर्थात् ध्यान के पूर्व ही विद्याओं का समूह उसके आगे आकर उपस्थित हो गया ॥ २७ ॥ विद्याओं की सिद्धि होने से कृतकृत्यता को प्राप्त वह अश्वग्रीव मेरुपर्वत की शिखर पर स्थित जिनालयों की वन्दना के लिये गया। उन्हें प्रणाम कर तथा प्रदक्षिणा देकर उसने पाण्डुक शिला की पूजा की, पश्चात् आकर घर में प्रवेश किया ॥ २८ ॥ उसने हजार आरों वाला चक्र, अमोघ शक्ति, दण्ड, तलवार, सफ़ेद छत्र और अर्ध भरत क्षेत्र की लक्ष्मी का स्वामित्व प्राप्त किया सो ठीक ही है। क्योंकि पुण्योदय से क्या साध्य नहीं है ? अर्थात् सभी कुछ साध्य है।॥ २९ ॥ उसके ललित मुसकान से युक्त, अत्यन्त सुन्दर तथा अतिशय उन्नत स्थूल स्तनों से सुशोभित अड़तालीस हजार स्त्रियाँ थीं ॥३०॥ समस्त दिशाओं को करदायी बनानेवाला वह अश्वग्रीव, अत्यन्त साहसी, तथा विद्या के प्रभाव से उन्नत सोलह हजार राजाओं से संयुक्त होकर राज्य करता था॥ ३१ ॥ अथानन्तर इस भरत क्षेत्र में सुरमा नामको धारण करनेवाला एक स्वर्गतुल्य देश है। ऐसा जान पड़ता है कि संसार में जो नाना प्रकार का अनुपम कान्ति का समह है वह सभी स्वयं जाकर वहाँ एकता को प्राप्त हो गया था ॥ ३२ ॥ जिस देश में सत्पुरुषों के साथ-साथ वृक्ष भी सरस-हरेभरे ( पक्ष में स्नेह से युक्त ), समुत्रत-ऊँचे (पक्ष में उदारता से युक्त), याचकों के द्वारा स्वयं गृहीतफलयाचक स्वयं आकर जिनके फलों का उपभोग करते थे (पक्ष में याचक स्वयं आकर जिनकी सम्पत्ति का उपभोग करते थे) तथा अधःकृत-समस्तजन-अपनी छाया में समस्त जनों को विश्राम देनेवाले १. विततान म०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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