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चतुर्थः सर्गः अथ किङ्करणीयताकुलेन द्रुतमाहूय रहस्यमात्यवर्गम् । तमुदन्तमशेषमाचचक्षे क्षितिनाथेन तदुत्तरं च पृष्टम् ॥३२ विमलेतरया दृशैव राज्ञो नयहीनामवगम्य चित्तवृत्तिम् । इति वाचमुदाजहार कीतिः शिरसा मन्त्रिगणेन चोदितार्थः ॥३३ मनसा क्रियया च विश्वनन्दी तव भूवल्लभ जातुचिन्न दुष्टः। उपगम्य चरैरलक्ष्यचेष्टैर्बहुशोऽस्माभिरसौ परीक्षितश्च ॥३४ प्रणतस्य समस्तमौलवगैर्नयसंपादितविक्रमक्रमस्य । यदि तस्य जिगीषुतास्ति राजन् किमसाध्यं सकले धरातलेऽपि ॥३५ अनुकूलतमेऽपि सोदरस्य प्रियपुत्रे विमुखत्वमभ्युपैति । भवतः स्थितिशालिनोऽपि बुद्धिधिगिमां वैरकृतां नरेन्द्रलक्ष्मीम् ॥३६ न विषं मरणस्य हेतुभूतं न तमो दृष्टिपथावृतिप्रवीणम् । बहुदुःखकरं न चापि घोरं नरकं न्यायविदः कलत्रमाहुः ॥३७ नयमार्गविदांवरस्य युक्तं न तव स्त्रीहृदयेप्सितं विधातुम् । असतां वचने प्रवतंमानो विपदां याति हि पात्रतामवश्यम ॥३८
एकचित्त था-सदा राजा के हित का विचार रखता था तो भी विशाखभति स्त्री के कहने से उस पर विकारभाव को प्राप्त हो गया सो ठीक ही है; क्योंकि स्त्री के प्रेमी मनुष्य के लिये स्वजन भी शत्रुरूप हो जाता है ।। ३१ ॥ तदनन्तर क्या करना चाहिये इस विषय की आकुलता से युक्त राजा ने शीघ्र ही एकान्त में मन्त्रिमण्डल को बुलाकर वह सब समाचार कहा और उसका उत्तर पूछा ॥ ३२॥ मन्त्रियों के समूह ने शिर हिला कर जिसे प्रेरित किया था ऐसा कोति नाम का मन्त्री, मलिन दष्टि के द्वारा ही राजा की नीतिभ्रष्ट मनोवृत्ति को जानकर इस प्रकार के वचन बोला ॥३३ ।। हे राजन् ! विश्वनन्दी मन से तथा क्रिया से कभी भी तुम्हारे विरुद्ध नहीं है । हमने स्वयं समीप जाकर तथा गुप्तचरों के द्वारा उसकी अनेक बार परीक्षा की है ॥ ३४ ॥ जिसे समस्त मौलवर्ग-मन्त्री आदि प्रमुख लोग नमस्कार करते हैं तथा जिसके पराक्रम की प्रवृत्ति नीतिपूर्ण है ऐसे उस युवराज को यदि विजय की इच्छा होती-तुम्हें परास्त कर वह राज्य प्राप्त करना चाहता तो हे राजन् ! उसके लिए समस्त पृथिवीतल पर असाध्य क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है ।। ३५ ॥ मर्यादा से सुशोभित रहने पर भी आपकी बुद्धि भाई के उस प्रियपुत्र में जो कि अत्यन्त अनुकूल रहता है, प्रतिकूलता को प्राप्त हो रही है; अतः वैर को उत्पन्न करनेवाली इस राजलक्ष्मी को धिक्कार है ॥ ३६ ॥ मरण का कारण विष कोई वस्तु नहीं है, दृष्टिपथ के रोकने में निपुण अन्धकार कुछ नहीं है और बहुत दुःख उत्पन्न करनेवाला भयङ्कर नरक भी दूसरा नहीं है । न्याय के ज्ञाता पुरुष स्त्री को ही विष, अन्धकार और भयंकर नरक कहते हैं ।। ३७ ।। आप तो नीतिमार्ग के जाननेवालों में श्रेष्ठ हैं अतः आपको स्त्री का मनचाहा कार्य करना उचित नहीं है। असत्पुरुषों के वचन में प्रवृत्ति करनेवाला मनुष्य अवश्य ही विपत्तियों की पात्रता को प्राप्त होता
१. मौलिवर्ग म०, मौललोकैः ब०।