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________________ चतुर्थः सर्गः उपयान्तमथैकदा विलोक्य प्रतिहारं जरसा परीतमूर्तिम् । इति चिन्तयतिस्म निश्चलाक्षः स्थितिमाङ्गों नृपतिर्जुगुप्समानः ॥१६ वपुरस्य पुरा विवृत्य जुष्टं मुहुरुत्केन यदङ्गनाजनेन । वलिना पलितेन चाभिभूतं तदिदं सम्प्रति कस्य वा न शोच्यम् ॥१७ सकलेन्द्रियशक्तिसम्पदायं जरसा विप्लुतया निराकृतोऽपि । न जहाति तथापि जीविताशां खलु वृद्धस्य विवर्द्धते हि मोहः ॥१८ अवनम्य पदे पदे शिरोधि शिथिलं भ्रयुगलं निरुद्धच दृष्टया । पतितं नवयौवनं धरण्यामयमन्वेष्टुमिवेक्षते प्रयत्नात् ॥१९ अथवा किमिहास्ति देहभाजां कुशलं जन्मवने विनष्टमार्गे। भ्रमतां सततं स्वकर्मपाकादिति निर्वेदमुपागमन्महीशः ॥२० अवयन्परिपाकदुःखबीजं विजहौ राज्यसुखं तदा नरेन्द्रः। विदिताखिलसंसृतिस्थितीनां महतां किं विषयेषु सक्तिरस्ति ।।२१ धवलातपवारणस्य मूले विनिवेश्यावरजं विशाखभूतिम् । तनयं च निधाय यौवराज्ये व्यरजनिःस्पृहता सतां हि जुष्टा ॥२२ उपगम्य चतुःशतैनरेन्द्रैः सहितः श्रीधरपादपद्ममूलम् । अजरामरतामुपैतुकामो जिनदीक्षां पृथिवीपतिः प्रपेदे ॥२३ विश्वभूति, समीप आते हुए वृद्ध द्वारपाल को देख शरीर की स्थिति से ग्लानि करता हुआ निश्चल नेत्र हो इस प्रकार विचार करने लगा ॥ १६ ॥ इसका जो शरीर पहले उत्कण्ठा से युक्त स्त्रीजनों के द्वारा करवट बदल-बदल कर प्रीतिपूर्वक सेवित हुआ था वही इस समय झुर्रियों तथा सफेद बालों से आक्रान्त हुआ किसके लिये शोचनीय नहीं है ? ॥ १७ ॥ यह द्वारपाल यद्यपि वृद्धावस्था से झकझोरी हुई समस्त इन्द्रियों की शक्तिरूप सम्पत्ति से तिरस्कृत हो रहा है तथापि जीवित रहने की आशा को नहीं छोड़ता है सो ठीक ही है; क्योंकि वृद्ध मनुष्य का मोह निश्चय से बढ़ता ही है ॥१८॥ यह जो पद-पद पर ग्रीवा को नीची कर तथा शिथिल भौंहों के युगल को दृष्टि से रोक कर नीचे देख रहा है उससे ऐसा जान पड़ता है मानों पड़े हुए नवयौवन को प्रयत्नपूर्वक खोजने के लिये ही पृथिवी पर देख रहा है ।। १९ ।। अथवा जिसमें मार्ग का पता नहीं ऐसे इस संसाररूपी वन में अपने कर्मोदय से निरन्तर भटकते हुए प्राणियों का कुशल क्या हो सकता है ? इस प्रकार विचार करता हुआ राजा वैराग्य को प्राप्त हुआ ॥ २० ॥ राज्यसुख परिपाककाल में दुःख का कारण है ऐसा जानते हुए राजा ने उसे तत्काल छोड़ दिया सो ठीक ही है; क्योंकि संसार की समस्त स्थिति के जाननेवाले महापुरुषों की क्या उसमें आसक्ति होती है ? अर्थात् नहीं होती ।। २१ ॥ वह श्वेत छत्र के नीचे छोटे भाई विशाखभूति को बैठाकर और युवराज पद पर पुत्र को नियुक्त कर विरक्त हो गया सो ठीक ही है; क्योंकि सत्पुरुषों को निःस्पृहता ही अच्छी लगती है-उसीको वे प्रीतिपूर्वक धारण करते हैं ।।२२।। अजर-अमर अवस्था को प्राप्त करने के इच्छुक राजा ने चार हजार राजाओं १. मुहुरुक्तेन म०। २. असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टेनष्टं क्व मे यौवनरत्नमेतत् । ३. व्यरुचनिःस्पृहता म० । इतीव वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नधोऽधो भुवि बम्भ्रमीति ॥५९॥-धर्मशर्माभ्युदय सर्ग ४ ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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