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________________ चतुर्थः सर्गः चतुर्थः सर्गः 'मालभारिणी अथ भारतवास्यभूतलेऽस्मिन्सुरलोक श्रियमुद्वहन्स्वकान्त्या । प्रथितो मगधाख्यया जनान्तः सुकृतामस्ति निवासहेतुरेकः ॥ १ सकलर्तुषु यत्र शालिवप्राः कलमामोदहृतालिनां समूहैः । शुकपातभयात्कृषीवलौघैः स्थगिता नीलपटैरिव व्यराजन् ॥२ प्रतिबुद्धमहोत्पलोत्पलान्तविहरत्सारसहंसचक्रवाकैः । महिषीकलुषीकृतावता रैर्वरबन्धैः परितः परीतमालः ॥३ निगमैर्वहदिक्षुयन्त्रगन्त्रीच यचीत्कार विभिन्न कर्णरन्धैः । परिपुञ्जित सस्यकूट कोटीनिकट लुनिवृषैवभूषितो यः ॥४ कदलीफल खादनावसाने शुचि पीत्वा नवनालिकेरतोयम् । अधिशय्य नवप्रवालशय्यां पथिका यत्र विशश्रमुर्वनेषु ॥५ धरणीतलसर्वसारसंपत्प्रकराणां पदमस्ति तत्र रम्यम् । वरराजगृहेण राजमानं नगरं राजगृहाभिधां दधानम् ॥६ उरुहर्म्यगवाक्षजालनिर्यद्धनकालागुरुधूपधूमजालैः ! मणिद्युतयो विभिन्नवर्णा दधिरे यत्र चमूरुचर्मलीलाम् ॥७ चतुर्थ सर्ग तदनन्तर भरतक्षेत्र की इस भूमि पर अपनी कान्ति से स्वर्गलोक की शोभा को धारण करनेवाला मगध नाम से प्रसिद्ध एक देश है । यह मगधदेश पुण्यात्मा जीवों के निवास का अद्वितीय है ॥ १ ॥ जहाँ समस्त ऋतुओं में धान के खेत, धान की सुगन्धि से आकृष्ट भ्रमरों के समूह से आच्छादित रहते हैं जिससे ऐसे सुशोभित होते हैं मानों तोताओं के आक्रमण के भय से किसानों के समूह ने उन्हें नीलरङ्ग के वस्त्र से ढँक रखा हो ॥ २ ॥ जिनमें खिले हुए सामान्य कमल तथा नील कमलों के बीच सारस, हँस और चक्रवाक पक्षी क्रीडा कर रहे हैं तथा जिनके तट भैंसों के द्वारा मलिन कर दिये गये हैं ऐसे जलाशयों से वह देश सब ओर से व्याप्त है || ३ || चलते हुए गन्ना पेरने के यन्त्र और गाड़ियों के समूह के चीत्कार शब्द से जिनमें कानों के विवर विदीर्ण हो रहे हैं तथा एकत्रित किये हुए धान्य की राशियों के निकट चलनेवाले बैल उन धान्य की राशियों को चुटा रहे हैं ऐसे गाँवों से वह देश सुशोभित है ॥ ४ ॥ जहाँ पथिक, वनों में केले खाने के बाद नारियलों का पवित्र पानी पीकर तथा नवीन पल्लवों की शय्या पर सोकर विश्राम करते हैं ॥५॥ उस मगध देश में पृथिवी तल की सर्वश्रेष्ठ सम्पत्तियों के समूह का स्थान, तथा उत्तमोत्तम राजभवनों से सुशोभित राजगृह नाम को धारण करनेवाला सुन्दर नगर है ।। ।। ६ ।। बड़े-बड़े महलों के झरोखों के समूह से निकलते हुए कृष्णागुरुधूप के बहुत भारी धूओं से जिनका रङ्ग बदल गया है ऐसी १. 'विषमे ससजा यदा गुरूचेत्सभरा येन तु मालभारिणीयम्' – छन्दोमञ्जरी परिशिष्टे । २. भारतवास ब० । ५
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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