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________________ वर्धमानचरितम् बालेन्दुपद्धिदंष्ट्राग्रकरालितबृहन्मुखः । दावानल शिखापिङ्गभङ्गुरस्कन्धकेसरः ॥१६ कपिलभूधनुर्भीमो ज्वलदुल्कोपमेक्षणः । पूर्वानुवृत्तलाङ्गलपल्लवोच्छिततद्ध्वजः ॥१७ प्रोत्तापूर्वकायेन नामन्निव नभस्तलम । सान्द्रचन्द्रांशसंपातप्रोच्छवसत्कुमुदच्छविः ॥१८ तत्सानी गर्जतो मेघांस्तर्जयनगजितैः क्रुधा । उत्प्लुत्योत्प्लुत्य वेगेन द्रावयन्नखरैः खरैः ॥१९ कुञ्जराननुकुजाद्रिमनुधावन्प्रधावतः । इति तत्रावसत्स्वैरं चिरकालं गिरौ हरिः ॥२० अन्यदा वन्यनागेन्द्रं हत्वा सिंहः श्रमातुरः । अध्यशेत गुहावक्त्रं नगस्याहेतुहासवत् ॥२१ आयातौ तं तथासुप्तं पावनौ पवनाध्वना । यती ददृशतुर्नाम्नामितकोयमितप्रभौ ॥२२ अवतीर्य यती मुख्यावम्बरादम्बरेचरौ। आसातां सप्तपर्णस्य मूले मणिशिलातले ॥२३ चारणौ हरिबोधाय सानुकम्पावकम्पनो। पेठतुः कलकण्ठौ तौ प्राज्ञौ प्रज्ञप्तिमूजिताम् ॥२४ ततस्तद्ध्वनिना ध्वस्तनैद्रतन्द्रो मृगाधिपः । विहाय सहजं क्रौर्यमार्यचित्तोऽभवत्क्षणात् ॥२५ निर्गत्य स्रस्तकांग्रवालधिस्तद्ग्रहामुखात् । भीषणाकृतिमुत्सृज्य भेजे सिंहस्तदन्तिकम् ॥२६ अत्यन्तशान्तभानेन पुरो निविविशे तयोः । सन्मुखं तन्मुखालोकप्रीतिविस्तारितेक्षणः ॥२७ आलोक्यामितकोतिस्तमित्यवादीदुदारधीः । अहो मृगेन्द्र सन्मार्गमप्राप्यैवं भवानभूत् ॥२८ चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करनेवाली दाढ़ों के अग्रभाग से जिसका विशाल मुख भयंकर था, जिसकी गर्दन की घुघराली सटाएँ दावानल की शिखाओं के समान पीतवर्ण थीं, जो पीली-पीली भौंहों रूपी धनुष से भयंकर था, जिसके नेत्र देदीप्यमान उल्का के समान थे, क्रमपूर्ण गोलाई को लिये हुई पूँछ का गुच्छा ही जिसकी ऊपर उठी हुई ध्वजा थी, जो अपने उन्नत पूर्वभाग से ऐसा जान पड़ता था मानों गगनतल की छलाँग ही भर रहा हो, चन्द्रमा की सघन किरणों के पड़ने से खिले हुए कुमुदों के समान जिसको कान्ति थी, जो उस पर्वत की शिखर पर गरजते हुए मेघों को क्रोधवश अपनी गर्जना से डाँटता हुआ वेग से उछल-उछल कर पैने नखों से चीर रहा था, तथा निकुञ्जों से युक्त उस पर्वत पर दौड़ते हुए हाथियों का जो पीछा कर रहा था ऐसा वह सिंह उस पर्वत पर स्वच्छन्दतापूर्वक चिरकाल से रह रहा था ॥१६-२०॥ किसी समय वह सिंह जङ्गली हाथी की शिकार कर परिश्रम से दुखी होता हआ गुफा के अग्रभाग में शयन कर रहा था। गुहा के अग्रभाग पर पड़ा हुआ वह सिंह पर्वत के अकारण हास्य के समान जान पड़ता था ॥ २१ ॥ उस प्रकार सोये हुए उस सिंह को आकाश मार्ग से आगत अमितकोति तथा अमितप्रभ नाम के पवित्र मुनियों ने देखा ।।२२।। आकाश में चलनेवाले अर्थात् चारणऋद्धि के धारक दोनों प्रमुख मुनिराज आकाश से उतर कर सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे मणिमय-शिलातल पर बैठ गये ॥ २३ ॥ जो दयावान् थे, निर्भय थे, मनोहर कण्ठ से युक्त थे तथा अतिशय बुद्धिमान् थे ऐसे वे दोनों चारणऋद्धिधारी मुनिराज सिंह को सम्बोधने के लिये उच्चस्वर से प्रज्ञप्ति का पाठ करने लगे ॥ २४ ॥ तदनन्तर उनकी आवाज से जिसकी निद्रा-सम्बन्धी तन्द्रा नष्ट हो गई थी ऐसा वह सिंह अपनी सहज-जन्मजात क्रूरता को छोड़ क्षणभर में आर्य मनुष्यों जैसे हृदय का धारक हो गया ॥ २५ ॥ जिसके कानों के अग्रभाग और पूँछ नीचे की ओर झुक गई थी ऐसा वह सिंह उस पर्वत के गुहाद्वार से बाहर निकलकर तथा भयंकर आकृति को छोड़कर उन मुनियों के समीप जा पहुँचा ।। २६ ॥ सामने उन मुनियों का मुख देखने की प्रीति से जिसके नेत्र विस्तृत हो रहे थे ऐसा वह सिंह उनके आगे अत्यन्त शान्त भाव से बैठ गया ॥ २७ ॥ उदार बुद्धि के धारक अमितकोति मुनिराज उस सिंह को देख इस प्रकार बोले । १. पल्लवोर्वीकृतध्वज ब०। २. प्रोल्लसत् ब०। । ३. मूलेऽमलशिलातले ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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