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________________ द्वितीयः सर्गः अथोच्छवसन्नूतनपुष्पपल्लवानुपायनीकृत्य तमीश्वरं मुदा। दिदृक्षयागत्य सुदूरतो मधुः परिश्रमं नेतुमिवावेसद्वनम् ॥४६ पुराणपत्राण्यपनीय दूरतो विधून दक्षिणमातरिश्वनः। . अलंचकाराङ्करकोरकादिभिर्वनं मधुर्मत्तमधुव्रताकुलम् ॥४७ अपोषदुद्यन्मुकुलाङ्कराङ्कितं परीत्य चूतं भ्रमराः सिषेविरे । वदान्यमेष्यद्धनसम्पदां पदं सुदक्षिणं बन्धुमिवाथिबान्धवाः ॥४८ निरन्तरं कुडमलकोरकोत्करान्स्वमूलतो बिभ्रदशोकपादपः। मगेक्षणानां चरणाम्बजाहतःप्रहष्टरोमेव जनैरदश्यत ॥४९ स्वभुक्तशेषं विरहार्दितात्मनां निकृत्य मांसं मदनोग्ररक्षसा। पलाशशाखों प्रसवच्छलेन वा निरन्तरं शोषयितुं न्यधारयत् ॥५० विलासिनीवक्त्रसरोरुहासवप्रपायिनं केसरमेत्य पुष्पितम् । तुतोष कूजन्मधुपायिनां कुलं प्रियाः समानव्यसना हि देहिनाम् ॥५१ अनर्तयत्कोकिलपुष्करध्वनिप्रयुक्तभृङ्गास्वनगीतशोभिते। वनान्तरङ्गे स्मरबन्धिनाटकं लताङ्गना दक्षिणवातनर्तकः ॥५२ हिमक्षतां वीक्ष्य समस्तपद्मिनीमिति क्रुधा प्रोज्झितदक्षिणायनः । रविविधास्यन्निव तस्य निग्रहं हिमालयस्याभिमुखं न्यवर्तत ॥५३ प्राप्ति के लिये दिन-प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने लगा ॥ ४५ ॥ तदनन्तर उस राजा के लिये खिलते हुए नवीन पुष्प और पल्लवों का उपहार लेकर हर्षपूर्वक उसके दर्शन की इच्छा से बहुत दूर से वसन्त आया और परिश्रम दूर करने के लिये ही मानों वन में ठहर गया ॥ ४६ ।। वसन्त ऋतु ने दक्षिण दिशा से आये हए मलयसमीर के कम्पनों से पूराने पत्तों को दूर हटा कर मदोन्मत्त भ्रमरों से व्याप्त वन को अङ्करों तथा कुड्मलों आदि से अलंकृत कर दिया ॥ ४७ ।। जिस प्रकार धन के अभिलाषी बन्धु, उदार तथा आनेवाली बहुत भारी संपदाओं के स्थानभूत सरल बन्धु की सेवा करते हैं उसी प्रकार भ्रमर, कुछ-कुछ प्रकट होती हुई मञ्जरियों के अङ्करों से युक्त आम्रवृक्ष की प्रदक्षिणा दे-देकर सेवा करने लगे ॥४८।। मृगनयनी स्त्रियों के चरणकमलों से ताडित अशोक वृक्ष, अपनी जड़ से लेकर निरन्तर कुड्मलों तथा बेड़ियों के समूह को धारण करता हुआ लोगों के द्वारा ऐसा देखा गया था मानों उसे स्त्रियों के चरणस्पर्श से हर्ष के रोमाञ्च ही निकल आये हों ॥४९।। पलाश का वृक्ष ऐसा जान पड़ता था मानों वह, कामरूपी उग्र राक्षस के द्वारा छील-छीलकर निकाले तथा उसके खाने से शेष बचे हुए विरहपीड़ित मनुष्यों के मांस को फूलों के छल से निरन्तर सुखाने के लिये ही धारण कर रहा था ॥ ५० ॥ स्त्रियों के मुखकमल की मदिरा का पान करनेवाले पुष्पित बकुल वृक्ष को पाकर गुंजार करते हुए भ्रमरों का समूह संतोष को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है; क्योंकि समान व्यसन वाले लोग प्राणियों को प्रिय होते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार भ्रमर मधुपायी होते हैं उसी प्रकार बकुलवृक्ष भी मधुपायी थे इसलिये समान व्यसन होने से दोनों का प्रसन्न होना उचित ही था ।। ५१ ।। कोयल की कूक रूप मृदङ्गध्वनि के साथ होनेवाले भ्रमरों के शब्दरूप गीत से सुशोभित वनान्तरूपी रङ्गभूमि में मलयसमीररूपी नर्तक लतारूपी स्त्रियों से कामवर्धक नाटक का नृत्य करा रहा था ॥५२॥ समस्त कमलिनियों को हिम के द्वारा नष्ट हुई देख क्रोध से उसका प्रतिकार करने के लिये ही मानों १. मिवापतद्वनम् ब० । २.. न्यधीयत ब०। ३. ध्वनिः प्रयुक्त म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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