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________________ वर्धमानचरितम् पश्चात्समेत्य निजहस्तसरोरुहाभ्या ___ मभ्यर्च्य तस्य चरणावभवत्कृतार्थः ॥५५ संविश्य तं मुनिपति मुकुलीकृतान हस्ताम्बुजो विदितसंसृतिफल्गुभावः । उल्लङ्घय भीमभवसागरमोश जीवः सिद्धि कथं व्रजति तत्कथयेत्यपृच्छत् ॥५६ पृष्टः स तेन मुनिरेवमुवाच वाचं यावन्ममायमिति चैष वृथा प्रयासः । तावत्कृतान्तमुखमस्य हि तव्यपाया दात्मात्मभावमधिगम्य स याति सिद्धिम् ॥५७ तस्माद्विनिर्गतमसौ मुनिनूतनार्का ज्ज्योतिः परं सकलवस्तुगतावभासम् । मिथ्यान्धकारपरिभेदि समेत्य तत्त्वं पद्माकरः स्वसमये सहसा व्यबुद्ध ॥५८ आरोपितव्रतगणाभरणाभिरामो __... भक्त्या मुनि चिरमुपास्य नरेन्द्रपुत्रः। उत्थाय सादरमुपेत्य कृतप्रणामो गेहं ययौ मुनिगुणान्गणयन्गुणज्ञः ॥५९ पृथिवीतल को आलिङ्गित कर रहा था। तदनन्तर समीप में जाकर और अपने करकमलों से उनके चरणों की पूजा कर वह कृतकृत्य हो गया ।। ५५ ।। तदनन्तर जिसने अपने करकमलों को कमल की बोंड़ी के आकार कर रखा है तथा जो संसार की असारता को जानता है ऐसे नन्दन ने उन मुनिराज के समीप बैठकर पूछा कि हे स्वामिन् ! यह जीव संसाररूपी भयंकर सागर को पार कर मोक्ष को किस प्रकार प्राप्त होता है ? यह कहिये ।। ५६ ।। इस प्रकार नन्दन के द्वारा पूछे हुए मुनिराज ने निम्नाङ्कित वचन कहे । उन्होंने कहा कि 'यह मेरा हैं' जब तक यह व्यर्थ का प्रयास होता रहता है तब तक इस जीव को यम के मुख में प्रवेश करना पड़ता है और जब आत्मा में आत्मबुद्धि कर उस प्रयास से यह दूर हटता है तब मुक्ति को प्राप्त होता है ।। ५७ ।। वह नन्दनरूपी कमलवन, उन मुनिराजरूपी नवोदित सूर्य से प्रकट, समस्त वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने वाली, उत्कृष्ट तथा निथ्यात्वरूपी अन्धकार को खण्ड-खण्ड करने वाली वास्तविक ज्योति को प्राप्त कर स्वधर्म के विषय में सहसा प्रतिबोध को प्राप्त हो गया। भावार्थजिस प्रकार प्रातःकाल के नवोदित सूर्य की ज्योति को प्राप्त कर पद्माकर-कमल वन खिल उठता है उसी प्रकार उन मुनिराज से उपदेश प्राप्त कर वह पद्माकर-लक्ष्मी की खानस्वरूप राजपुत्र खिल उठा-हर्षविभोर हो उठा ॥ ५८ ॥ तदनन्तर धारण किये हुए व्रतसमहरूपी आभूषणों से सुन्दर उस राजपुत्र ने चिरकाल तक भक्तिपूर्वक उन मुनिराज की उपासना की, उठ कर बड़े आदर से समीप जाकर उन्हें प्रणाम किया । पश्चात् मुनिराज के गुणों की गणना करता हुआ वह १. ममाह ब०। २. विबुद्धः ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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