SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषयसूची सर्ग : १६ प्रोष्ठिल मुनिराजने कहा कि सूर्यप्रभ देवका जीव ही स्वर्गसे च्युत होकर तू श्वेतातपत्रा नगरीमें नन्दन नामका राजा हुआ है । अपने पूर्वभव सुनकर राजा नन्दनके नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। उसने मुनिराजको नमस्कार कर मुनिदीक्षा ले ली। उन्होंने बारह प्रकारके तप किये और तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धमें कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणभावनाओंका चिन्तवन किया। उन्होंने कनकावली आदि कठिन तप किये । अन्तमें समता भावने शरीरका परित्याग कर नन्दसे मुनि प्राणत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें देवेन्द्र हुए । आगे चलकर यही वर्द्धमान तीर्थंकर होंगे । १-६६ २१७-२२७ सर्ग : १७ इसी भरतक्षेत्रके विदेह देशमें एक कुण्डपुर नामका नगर है। उसमें राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। राजा सिद्धार्थकी रानीका नाम प्रियकारिणी था। प्रियकारिणी यथा नाम तथा गुणवाली रानी थी। दम्पतीमें अगाध प्रेम था। १-२९ २२८-२३३ - जब प्राणतेन्द्रकी आयु ६ माहकी शेष रह गई तब इन्द्रने अवधिज्ञानसे यह जानकर कि प्रियकारिणीके गर्भमें तीर्थंकर पत्रका गर्भावतरण होनेवाला है, उनकी सेवाके लिये षटकुमारिका देवियोंको भेजा। एक समय पिछली रातमें प्रियकारिणीने ऐरावत हाथी आदि सोलह स्वप्न देखे । राजा सिद्धार्थने स्वप्नोंका फल बताते हुए कहा कि तुम्हारे गर्भसे तीर्थकर पुत्र होगा। आषाढशुक्ला षष्ठीके दिन पुष्पोत्तर विमानसे चयकर प्राणतेन्द्रने माताके गर्भमें अवतरण किया । देवों ने उत्सव किया। ३०-५७ २३३-२३७ चैत्रशुक्ल त्रयोदशी सोमवारके दिन बालक वर्धमानका जन्म हुआ। सौधर्मेन्द्रने चतुणिकायके देवोंके साथ आकर जन्मकल्याणकका उत्सव किया। सुमेरु पर्वतके पाण्डुक वनमें स्थित पाण्डुक शिला पर बालकका जन्माभिषेक किया। सौधर्मेन्द्रने उनका वर्धमान नाम रक्खा। चारण ऋद्धिधारी विजय और संजय मनियोंने उनके दर्शनसे अपना संशय दूर हो जानेके कारण उनका सन्मति नाम रक्खा। ५८-९४ २३७-२४३ संगम देवने उनके साहसकी परीक्षा कर उनका महावीर नाम रक्खा । भगवान् महावीरका कुमारकाल सानन्द बीतने लगा। ३० वर्षकी अवस्थामें एक दिन उनका मन संसारसे विरक्त ही गया। लौकान्तिक देवोंने आकर उनके वैराग्यको बढ़ाया। मार्गशीर्ष कृष्णपक्षकी दशमी के दिन उन्होंने गृहत्यागकर दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान और सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई। ९५-१२४ २४३-२४७ वे एक बार अतिमक्तक नामक श्मशानमें स्थित थे। वहाँ भव नामक रुद्रने उनपर उपसर्ग किया परन्तु वे अपने धैर्यसे विचलित नहीं हुए। अन्तमें उसने 'महातिवीर' नाम रखकर क्षमायाचना की। वैशाखशुक्ला दशमीके दिन उन्हें ऋजुकूला नदीके तटपर जम्भक गाँवके वनमें केवलज्ञान हआ। देवोंने ज्ञानकल्याणकका उत्सव किया। १२५-१३० २४७-२४९
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy