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________________ पारिभाषिक शब्द संग्रह सूचना - शब्दोंके आगे दिये गये तीन अङ्कों में से प्रथम अङ्क सर्गका, दूसरा श्लोकका और तीसरा पृष्ठका सुचक है । अक्ष १५।८।१७७ = स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और अन्तराय १५।७१।१८८ = दान, लाभ भोग, उपभोग और वीर्य में बाधा डालने वाला एक कर्म । अजीव १५।५।१७६ = चेतना लक्षणसे सहित एक अपायविचय १५ | १४४।२०६ = धर्म्यध्यानका एक कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ | भेद । तत्त्व । अणु १५।१९।१७८ = पुद्गलद्रव्य का अविभाज्य - सबसे छोटा अंश । अदूरभव्य २।१६।१५ = निकटभव्य - शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करनेवाला जीव । अद्भुतपञ्चक १७।१२४।२४७ = पञ्चाश्चर्य - १ रत्नवृष्टि, २ पुष्पवृष्टि, ३ दुन्दुभि बाजोंका बजना, ४ मन्द सुगन्ध पवनका चलना और ५ अहोदानं अहोदानंकी ध्वनि होना । अधर्म १५ । १५ । १७८ = जीव और पुद्गलके ठहरने में सहायक एक द्रव्य | अभव्यता १५ | १३ | १७८ = अभव्यपना, जिसे सम्यग्दर्शनादिके प्राप्त करनेकी योग्यता न हो ऐसा जीव अभव्य कहलाता है । अम्भोराशि - सागर ३०।७०।२८ = असंख्यात वर्षोंका एक सागर होता है । इस ग्रंथ में इसका पारावार, समुद्र, अर्णव तथा सागर आदि शब्दोंके द्वारा उल्लेख किया गया है । अलोक १५।१६।१७८ = जहाँ मात्र आकाश रहता है । आकाश ही अवधिज्ञान ३।५४।२८ = प्रत्यक्षज्ञानका एक भेद । अवमोदर्य १५ ।१३२।२०३ भूख से कम भोजन करना, इसके कवलचान्द्रायण आदि भेद हैं । अनन्तचतुष्टय १८/६९।२६२ =अनन्तज्ञान, अनन्त. दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल । अनभीष्ट निर्जरा १५।४४ । १८३ = अकामनिर्जराअनचाहे दुःखके कारण उपस्थित होनेपर समताभाव रखने से होनेवाली निर्जरा । अनशन १५।१३१।२०२ = चारों प्रकारके आहारका अविरति १५।६२।१८६ = इन्द्रियोंके विषय तथा त्याग कर उपवास रखना । अनादिमिथ्यात्वगद कायिक जीवोंकी हिंसा से विरक्त नहीं होना । २।१५।१५ = अनादिकालीन असद्य १५।२७।१८० = असातावेदनीय कर्म, जिसके उदयसे दुःखका अनुभव होता है । मिथ्यादर्शनरूपी रोग । अवर्णवाद १५।२९।१८० = झूठे दोष लगाना । अविरत १५ ।१४३।२०६ = प्रारम्भके चार गुणस्थानवर्ती जीव । अनुभाग १५।६९।१८८ = कर्मबन्धका एकभेद | अनुप्रेक्षा १५।८२ । १९२ = पदार्थके स्वरूपका बारबार चिन्तन करना। इसके अनित्यत्व आदि बारह भेद 1 अन्तराय १५।२६।१८० = ज्ञान दर्शनकी प्राप्ति में आचार्यभक्ति १५ । ४७।१८३ = एक भावना-आचार्यविघ्न डालना । असंयत = १५ । १२ । १७७ = हिंसादि पाँच पापोंसे विरक्त नहीं होना । आकिञ्चन्य १५०८४ । १९२ = परिग्रहका त्याग करना - एक धर्म | में भक्ति रखना ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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