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________________ २६६ वर्धमानचरितम् एकादश ख्यातमहानुभावास्तस्येन्द्रभूतिप्रमुखा गणेशाः । समुन्नताः पूर्वधराश्च पूज्या बभूवुरुद्धास्त्रिशतानि लोके ॥९० वंशस्थम् मताः सहस्राणि नवाथ शिक्षका युतान्युदारा नवभिः शतैः परैः। सहस्रमासन्नवधीक्षणान्वितास्त्रिभिः शतैरभ्यधिकं च साधवः ॥९१ उपजाति: धीराः मनःपर्ययबोधयुक्ता बुधस्तुताः पञ्च शतान्यभूवन् । अनुत्तमाः केवलिनश्च मान्या मनीषिणां सप्तशतानि शश्वत् ॥९२ अनिन्दिता वैक्रियिकाः शतानि ख्याता बभूवुर्नव शान्तचित्ताः। 'उन्मूलिताशेषकुतीर्थवृक्षा वादिद्विपेन्द्राश्च चतुःशतानि ॥९३ अथार्मिकाः शुद्धचरित्रभूषाः श्रीचन्दनार्याप्रमुखा बभूवुः । षद्भिः सहस्ररधिकानि वन्द्यास्त्रिशत्सहस्राणि सुनीतिभाजाम् ॥९४ मालिनी अणुगुणवरशिक्षाभेदभिन्नव्रतस्था जगति शतसहस्राण्यूजिताः श्रावकाः स्युः। व्रतमणिगणभूषास्तत्त्वमार्गे प्रवीणास्त्रिगुणशतसहस्राण्युज्ज्वलाः श्राविकाश्च ॥९५ शालिनी तस्यासंख्याता देवदेव्यः सभायां संख्यातास्तिर्यग्जातयश्चाप्यमोहाः । आसन्सम्यक्त्वं निश्चलं धारयन्तो ज्ञाताशेषार्थाः शान्तया चित्तवृत्या ॥९६ जिसकी भासुर किरणों का समूह देदीप्यमान हो रहा था ऐसा धर्म चक्र क्षणभर के लिये विद्वानों को भी दूसरे सूर्य बिम्ब की शङ्का को उत्पन्न कर रहा था ।। ८९ ॥ उन भगवान् के इन्द्रभूतिको आदि लेकर ग्यारह प्रसिद्ध गणधर थे तथा लोक में उन्नत, पूज्य तथा श्रेष्ठ पूर्वधारी तीनसो थे ॥ ९० ॥ नौ हजार नौ सो उत्कृष्ट शिक्षक थे और एक हजार तीन सौ साधु अवधिज्ञानरूपी नेत्र से सहित थे ॥९१ ॥ धीर वीर तथा विद्वज्जनों के द्वारा स्तुत पांच सौ मनःपर्यय ज्ञानी थे। सर्वोत्कृष्ट तथा विद्वज्जनों के सदा मान्य केवली सात सौ थे ॥९२ ॥ अनिन्दनीय, प्रसिद्ध तथा शान्त चित्त के धारक विक्रिया ऋद्धिधारी नौ सौ थे। समस्त कुतीर्थ रूप वृक्षों को उन्मूलित करने वाले वादीरूपो गजराज चार सौ थे ॥ ९३ ॥ शुद्ध चारित्र ही जिनका भूषण था ऐसी श्रीचन्दना को आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थीं। ये सभी आर्यिकाएं सुनीतिज्ञ मनुष्यों की वन्दनीय थीं ॥ ९४ ।। अणुव्रत गुणव्रत और शिक्षावत के भेद से भिन्नता को प्राप्त हुए बारह व्रतों में स्थित, जगत्प्रसिद्ध श्रावक एक लाख थे और व्रतरूपी मणिमय आभूषणों से विभूषित, तत्त्वमार्ग में निपुण तथा उज्ज्वल-निर्दोष व्रतों का पालन करने वाली श्राविकाएं तीन लाख थीं ॥ ९५ ॥ उनकी सभा में असंख्यात देव-देवियाँ तथा संख्यात तिर्यञ्च थे। ये सभी मोहरहित, निश्चल सम्यक्त्व को धारण करने वाले तथा शान्त चित्त वृत्ति से समस्त १. उन्मीलिताशेष म० । २. सुनीतिभाजः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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