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________________ अष्टादशः सर्गः वसन्ततिलकम् तासापर्यंनुपमद्युतिशातकुम्भस्तम्भैर्धृतो विविधरत्नमयो बभूव । श्रीमण्डपो मधुपमण्डल मण्ड्यमानः प्रोत्फुल्लहेम कमलैर्विहितोपहारः ॥३० उपजातिः चतुर्महादिक्षुधृतानि यक्षैश्चत्वारि मूर्ध्ना मुकुटोज्ज्वलेन । सदाद्यपीठे सह धर्मचक्राण्यात्यांबभूवुर्मणिमङ्गलौघैः ॥३१ वसन्ततिलकम् मे द्वितीयमणिपीठतले विरेजुरष्टौ ध्वजाः प्रविमला हरिदष्टकस्थाः । चक्रद्विपोक्ष कमलाम्बर हंसता माल्याङ्किता विविधरत्नपिनद्धदण्डाः ॥३२ उपजातिः रराज चूडामणिवत्त्रिलोक्यास्तृतीयपीठे भगवन्निवासः । मनोहरो गन्धकुटीविमानः सर्वार्थसिद्धीद्धविमानलीलः ॥३३ तस्थौ स तस्मित्रिजगत्प्रतीक्ष्यः प्रतीक्ष्यमाणामलवाग् जिनेन्द्रः । विबन्धनो भव्यजनैरुपेतैः सुगन्धिगन्धाम्बुभिरुक्षितान्ते ॥३४ २५५ वसन्ततिलकम् तस्थुर्यतीन्द्रदिविजप्रमदायिकाश्च ज्योतिष्कवन्यभवनामरवामनेत्राः । तं भावना वनसुरा ग्रहकल्पजाश्च मर्त्याः प्रदक्षिणमुपेत्य मृगाः क्रमेण ॥३५ स्पर्श करने वाली वेदिकाएँ थीं । वे वेदिकाएँ देदीप्यमान आकाश स्फटिक मणि से निर्मित थीं परस्पर पृथक्-पृथक् थीं और विनय सहित बारह गण उन पर हर्ष से बैठे हुए थे ॥ २९ ॥ उन वेदिकाओं के ऊपर अनुपम कान्ति वाले सुवर्णमय स्तम्भों से धारण किया हुआ, नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, भ्रमर समूह से सुशोभित तथा खिले हुए सुवर्ण कमलों के उपहार से युक्त भी मण्डप था || ३० || पहली कटनी पर चारों महादिशाओं में यक्षों द्वारा मुकुटों से उज्ज्वल मस्तक से धारण किये हुए चार धर्म चक्र, मणिमय मङ्गल द्रव्यों के साथ रखे हुए थे ।। ३१ ।। सुवर्ण से निर्मित तथा मणि में से जटित दूसरी कटनी पर, जो अत्यन्त निर्मल थी, आठ दिशाओं में स्थित थी, चक्र, गज, बैल, कमल, वस्त्र, हंस, गरुड़ और माला से चिह्नित थी तथा जिनके दण्ड नाना प्रकार के रत्नों से खचित थे, ऐसी आठ ध्वजाएँ सुशोभित हो रही थीं ॥ ३२ ॥ तीसरी कटनी पर गन्धकुटी नाम का वह विमान सुशोभित हो रहा था जो तीन लोक के चूडामणि के समान था, जिसपर भगवान् का निवास था, जो मनोहर था और जिसकी शोभा सर्वार्थ सिद्धि के देदीप्यमान विमान के समान थी ॥ ३३ ॥ समीप में आये हुए भव्य जनों द्वारा सुगन्धित जल से जिसका निकटवर्ती भाग सींचा गया था ऐसे उस गन्धकुटो विमान में वे जिनेन्द्र भगवान् स्थित थे जो तीनों जगत् के द्वारा पूज्य थे, जिनके निर्मल वचनों की प्रतीक्षा की जा रही थी तथा जो कर्मबन्ध से रहित थे || ३४ || भगवान् को प्रदक्षिणा देकर क्रम से मुनीन्द्र, कल्पवासिनी देवियाँ,
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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