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वर्धमानचरितम्
शार्दूलविक्रीडितम्
प्रासादा मणिमण्डपा बहुविधा धारागृहश्रेणय
श्चक्रान्दोलसभालयाः सुरुचिरा मुक्ताशिलापट्टकाः । क्रीडापर्वतकाः सुरासुरचितास्तत्रैव रेजुर्वृताः
कूजन्मत्त शिखण्डिमण्डल वृतप्रान्तैर्लतामण्डपैः ॥१५ वंशस्थम्
वनात्परा वज्रमयी नभस्तले प्रसारिताखण्डलचापमण्डला । वभूव वेदी निजरश्मिसम्पदा युता चतुभिर्वररत्नतोरणैः ॥१६ मयूर माल्याम्ब र हंसकेशरिद्विपोक्षतार्थ्याम्बुजचक्रलाञ्छनाः । ध्वजा दशैकैकमभूच्च साष्टकं शतं सुवीथीरभितस्ततः परे ॥ १७ शार्दूलविक्रीडितम्
एकस्यां दिशि केतवः सुरनदीकल्लोलभङ्गा इव
क्रान्ताम्भोदपथाः सहस्रमभवन्साशीति वीभ्रत्विषः । सर्वेऽपि चतुर्दिगन्तरगताश्चैकत्र पिण्डीकृता
विंशत्या च चतुः सहस्रमपरैर्युक्तं शतैश्च त्रिभिः ॥ १८ वंशस्थम्
ततः परो हेममयः स्फुरत्प्रभो बभूव शालोऽम्बुजरागगोपुरैः । चतुर्महासान्ध्यघनैः समन्वितं विडम्बयन्नैखिल विद्युतां चयम् ॥१९
नन्दवती और नन्दोत्तरा उनके नाम थे । उनमें नन्दा स्वर्ण कमलों से, नन्दवती मेघ के समान नील वर्ण के धारक नील कमलों के समूह से और नन्दोत्तरा स्फटिक के समान सफेद कुमुदों से व्याप्त थी || १४ | उन्हीं वनों में महल, मणिमण्डप, नाना प्रकार के फव्वारों की पंक्तियाँ, चक्राकार झूले, हिंडोलना, सभागृह, मोतियों की शिलापट्ट, सुर-असुरों से व्याप्त, तथा शब्द करते हुए मयूरों समूह से जिनका प्रान्तभाग घिरा हुआ था ऐसे लता-मण्डपों से वेष्टित क्रीडा पर्वत सुशोभित हो रहे थे ॥ १५ ॥
के
वनों के आगे वज्रमयी वेदिका थी जो अपनी किरण रूपी सम्पदा के द्वारा आकाश में इन्द्रधनुषों के समूह को फैला रही थी, तथा चार उत्कृष्ट रत्नमय तोरणों से सहित थी ॥ १६ ॥ वेद
आगे सुन्दर वीथियों के दोनों ओर मयूर, माला, वस्त्र, हंस, सिंह, हाथी, बैल, गरुड़, कमल और चक्र इन दश चिह्नों से सहित एक सौ आठ एक सौ आठ ध्वजाएँ थीं ।। १७ ।। जो गङ्गा नदी की तरङ्ग सन्तति के समान थी, जिन्होंने आकाश को व्याप्त कर रक्खा था तथा जिनकी श्वेत कान्ति थी ऐसी वे ध्वजाएं एक दिशा में एक हजार अस्सी थीं। चारों दिशाओं की सब ध्वजाएँ एक जगह एकत्रित करने पर चार हजार तीन सौ बीस होती थीं ॥ १८ ॥ ध्वजाओं के आगे देदीप्यमान कान्ति से युक्त सुवर्णसाल – सोने का कोट था जो कि पद्मराग मणि निर्मित गोपुरों से सहित था
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