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________________ सप्तदशः सर्गः २४९ इत्यसगकृते श्रीवर्द्धमानचरिते भगवत्केवलोत्पत्तिर्नाम सप्तदशः सर्गः अष्टादशः सर्गः मालिनी अथ धनपतिरिन्द्रस्थाज्ञया स्वस्य भक्त्या विविधवरविभूति तत्क्षणेनेति चक्रे । समवसरणभूमि तस्य नाथस्य रम्या मभिमतममराणां किं न साध्यं त्रिलोके ॥१ - उपजातिः ततो द्विषड्योजनमात्रविस्तृतं क्षोणीतलं नीलमयं रजोमयः । शरन्नभोभागमिवाम्बुदोच्चयः शालः परीयाय हिमांशु निर्मलः ॥२ स सिद्धरूपैः समभावि मानस्तम्भमहादिक्षु दिदृक्षयान्तम् । मुक्तिप्रदेशैर्भुवमागतैर्वा ततः परैर्भासुररेणुशालात् ॥३ ततः पराण्यच्छपयोधराणि सपद्मपत्राणि सरांस्यभूवन् । आशामुखानीव घनान्तकाले चत्वारि नन्दाहरनामभाजि ॥४ इस प्रकार असग कवि कृत श्रीवर्द्धमानचरित में भगवान् के केबल ज्ञान की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला सत्रहवाँ सगं समाप्त हुआ। अठारहवाँ सर्ग अथानन्तर कुबेर ने इन्द्र की आज्ञा और अपनी भक्ति से उसी समय उन भगवान् की नाना प्रकार की उत्कृष्ट विभूति से युक्त रमणीय समवसरण भूमि की इस प्रकार रचना की सो ठोक हो है क्योंकि देवों का कोन अभिमत-इष्ट कार्य तीन लोक में साध्य नहीं है ? अर्थात् सभी साध्य हैं ॥ १।। तदनन्तर बारह योजन विस्तृत नीलमणिमय पृथिवी तल को चन्द्रमा के समान निर्मल धूलिशाल ने इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि शरदऋतु के आकाश प्रदेश को सफेद मेघों का समूह घेर लेता है॥२॥ उस देदीप्यमान धूलिशाल के आगे सिद्ध रूप-सिद्ध प्रतिमाओं से सहित चार मान-स्तम्भ थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानों महा दिशाओं का अन्त देखने के लिये पृथिवी पर आये हुए मुक्ति प्रदेश ही हों क्योंकि मुक्ति प्रदेश भी सिद्ध रूप-सिद्ध परमेष्ठियों की अवगाहना से युक्त होते हैं ॥ ३ ॥ उसके आगे स्वच्छ जल को धारण करने वाले तथा कमल दलों से सहित नन्दा ह्रद नाम के चार सरोवर थे जो शरद्ऋतु के दिशामुख-दिशाओं के अग्रभाग के समान जान १. बारह योजन विस्तृत समवसरण भगवान् वृषभदेव का था। महावीर स्वामी का एक योजन ही विस्तृत था । यहाँ कवि ने सामान्य रूप से वर्णन किया है ऐसा जान पड़ता है।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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