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________________ सप्तदशः सर्गः अचिरादुपलब्धसप्तलब्धिः स मनः पर्ययबोधमभ्युपेत्य । रुरुचे वितमाः परं रजन्यामनवाप्तै ककलो यथा मृगाङ्कः ॥११८ अपरेद्युरनून सत्त्वयुक्तो नभसो मध्यमधिष्ठिते पतङ्गे । उरुहर्म्यचयेन पारणायै निचितं 'कूलपुरं विवेश वीरः ॥११९ भुवि कूल इति प्रसिद्धनामा नृपतिस्तन्नगराधिपः स्वगेहम् । प्रविशन्तमणुव्रती निदध्यौ भगवन्तं प्रतिपालितातिथिस्तम् ॥१२० नवपुण्यचिकीर्षया धरायां नवपुण्यक्रमवेदिनां बरीयान् । क्षितिस्तमभोजयत्तदीयान्निरयासोद्भवनाज्जिनोऽपि भुक्त्वा ॥ १२१ अथ तस्य गृहाजिरे नमस्तो वसुधारा निपपात पुष्पवृष्टया । सह दुन्दुभयोsपि मन्द्रमन्द्रं दिवि नेदुस्त्रिदशैः प्रताड्यमानाः ॥१२२ विकिरन्नवपारिजातगन्धं सुववौ गन्धवहः सुगन्धिताशम् । अतिविस्मितचेतसां सुराणां खमहोदानवचोभिरापुपूरे ॥ १२३ इति दानफलेन स क्षितीशः समवापाद्भुतपञ्चकं सुरेभ्यः । यशसः सुखसम्पदां च हेतुर्गृहधर्माभिजुषां हि पात्रदानम् ॥१२४ अतिमुक्तक नामनि श्मशाने प्रतिमास्थं निशि नाक्षमिष्ट जेतुम् । विविधैरुपसर्गमात्मविद्याविभवैस्तं विभवं भवो वितन्वन् ॥१२५ २४७ जिन्हें शीघ्र ही सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई थीं ऐसे वे भगवान् मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त कर अज्ञानान्धकार से रहित होते हुए उस तरह अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे जिस तरह कि रात्रि अन्धकार से रहित तथा एक कला से न्यून चन्द्रमा सुशोभित होता है ॥ ११८ ॥ दूसरे दिन उत्कृष्टशक्ति से युक्त भगवान् महावीर ने, जब सूर्य आकाश के मध्य में स्थित था तब अर्थात् मध्याह्न काल में पारणा के लिये विशाल भवनों के समूह से व्याप्त कूलपुर नगर में प्रवेश किया ॥ ११९ ॥ पृथिवी पर जिसका 'कूल' यह नाम प्रसिद्ध था, तथा जो अतिथि की प्रतीक्षा कर रहा था ऐसे उस नगर के अधिपति अणुव्रती राजा ने अपने घर में प्रवेश करते हुए उन भगवान् को देखा ॥ १२० ॥ जो पृथिवी पर नवधा भक्ति के क्रम को जानने वालों में नवीन पुण्य बन्ध करने को इच्छा से उन भगवान् को भोजन कराया । उसके घर से बाहर निकल गये ॥ १२१ ॥ उसो समय उसके गृहाङ्गण साथ रत्नों की धारा पड़ने लगी, आकाश में देवों के द्वारा ताडित दुन्दुभि बाजे भी गम्भीर शब्द करने लगे ॥ १२२ ॥ नूतन पारिजात की गन्ध को बिखेरने वाला पवन दिशाओं को सुगन्धित करता हुआ बहने लगा और जिनके चित्त बहुत भारी आश्चर्य से चकित हो रहे थे ऐसे देवों के 'अहो दानं अहो दानं' शब्दों ने आकाश को व्याप्त कर लिया ।। १२३ ।। इस प्रकार दान के फल स्वरूप उस राजा ने देवों से पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि गृहस्थों के लिये पात्र दान यश और सुखसम्पदा का हेतु होता ही ॥ १२४ ॥ श्रेष्ठ था ऐसे उस राजा भगवान् भी भोजन कर आकाश से पुष्पवृष्टि के में एक बार वे रात्रि के समय अतिमुक्तक नाम के श्मशान में प्रतिमायोग से विराजमान थे । १. कूल्यपुरं ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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