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________________ सप्तदशः सर्गः २४५ प्रतिबोधयितुं मुदा तदायादथ लौकान्तिकसंहतिस्तमीशम् । मुकुटांशुभिरिन्द्र चापलक्ष्मीमपयोदां दिवि कुर्वती विचित्रैः ॥१०४ मुकुलीकृतहस्तपल्लवासौ विनयेन 'प्रणिपत्य तं मुमुक्षुम् । सुरसंहतिरित्युवाच वाचं मुदिता तत्समभावदृष्टिपातैः ॥१०५ परिनिष्क्रमणस्य नाथ योग्या सविधं कालकलेयमागता ते। स्वयमुत्कतया समागमाय प्रियदूती प्रहिता तपःश्रिया वा ॥१०६ सहजेन समन्वितस्य भर्तुस्तव वेदत्रितयेन निर्मलेन । अपरैः परिबुद्धतत्त्वलेशैरुपदेशः क्रियते कथं विमुक्तेः ॥१०७ तपसा सुनिरस्य घातिकर्मप्रकृतीः केवलमाप्य भव्यसत्त्वान् । प्रतिबोधय मुक्त्युपायमुक्त्वा भववासव्यसनाद्विभीतचित्तान् ॥१०८ अभिधाय गिरं प्रपन्नकालामिति लौकान्तिकसंहतिय॑रंसीत् । भगवानपि निश्चिकाय मुक्ति वचनं स्वावसरे हि याति सिद्धिम् ॥१०९ अथ देवगणाश्चतुर्विकल्पास्तरसा कुण्डपुरे तदा त्वपश्यन् । प्रविलोकनकौतुकानिमेषाः पुरनारीः स्ववधूविशङ्कयेव ॥११० तदनन्तर हर्ष से संबोधने के लिये उसी समय लौकान्तिक देवो की पंक्ति चित्रविचित्र मुकुट राशियों से आकाश में बिना मेघ के ही इन्द्रधनुष की लक्ष्मी को प्रकट कर रही थी॥ १०४ ॥ जिसने हस्त पल्लवों को कमल के मुकुलाकार कर लिया था ऐसी वह देवपंक्ति, विनय से उन मोक्षाभिलाषी भगवान् को प्रणाम कर उनके समभाव पूर्ण दृष्टिपात से प्रसन्न हो इस प्रकार के वचन कहने लगी॥ १०५ ॥ हे नाथ ! दीक्षाग्रहण करने के योग्य यह काल की कला आपके समीप आई है सो ऐसा जान पड़ता है मानों समागम के लिये उत्सुकता वश तपोलक्ष्मी के द्वारा स्वयं भेजी हई प्रिय दूती ही है ॥ १०६ ।। हे स्वामिन् ! जो जन्म से ही उत्पन्न हुए निर्मल तीन ज्ञानों से सहित हैं ऐसे आपके लिये तत्त्व का थोड़ा सा अंश जानने वाले अन्य लोगों के द्वारा मोक्ष का उपदेश कैसे किया जा सकता है ? ।। १०७॥ तप के द्वारा घातिया कर्मों की प्रकृतियों को नष्ट कर आप केवलज्ञान प्राप्त कीजिये तथा संसार वास के दुःखों से भयभीत चित्तवाले भव्य जीवों को मोक्ष का उपाय बताकर प्रतिबोध प्राप्त कराइये ॥ १०८ ॥ लोकान्तिक देवों का समह इस प्रकार के समयानुरूप वचन कहकर चुप हो रहा और भगवान ने भी मक्ति प्राप्त करने का निश्चय कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि वचन अपने अवसर पर ही सिद्धि को प्राप्त होता है ॥१०९॥ तदनन्तर चार निकाय के देव बड़े वेग से कुण्डपुर नगर में आ पहुँचे। वहाँ उस समय देखने के कौतूहल से टिमकार रहित नेत्रो वाली नगर की स्त्रियों को उन देवों ने अपनी स्त्रियों की शङ्का से ही मानों देखा था । भावार्थ-देवागमन को देखने के कुतूहल से नगर की स्त्रियां निनिमेष हो रही थी इसलिये देवों ने उन्हें क्या ये हमारी देवाङ्गनाएं हैं ? इस शङ्का से देखा था ॥ ११० ॥ १. प्रतिपात्य म०। २. परिबुद्धतावलेशैः म०। ३. रुपदेशः म०। ४. प्रतिलोकन म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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