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________________ ३४० वर्धमानचरितम् शच्या घृतं करयुगेन तमब्जभासा निन्ये सुरैरनुगतो नभसा सुरेन्द्रः । स्कन्धे निधाय शरदभ्रसमानमूर्तेरैरावतस्य मदगन्धहृतालिपङ्क्तेः ॥७३ रुन्धन्दिशो दश नवाम्बुदनादमन्द्रस्तूयध्वनिः श्रुतिसुखः परमुच्चचार । तद्वर्णशंसि कलमप्रतिकिन्नरेन्द्र-र्गानं नभस्यनुजगेऽनुगत त्रिमार्गम् ॥७४ चन्द्राकृतिद्युतिहरं धवलीकृताशं मूर्तं यशो दिवि तदीयमिवोज्जिहानम् । ईशानकल्पपतिरुच्छ्रितमातपत्रं तस्य त्रिविष्टपपतेबिभरांबभूव ॥७५ पार्श्वस्थसामजनिविष्टसनत्कुमारमाहेन्द्रहस्तधृतचामर रुद्ध दिक्का । • द्यौराबभौ स्वयमनुद्रुवताभिषेक्तुं दुग्धाधिना परिवृतेव जिनेश्वरं तम् ॥७६ उत्क्षेपक स्फटिक दर्पणतालवृन्तभृङ्गारतुङ्गकलशा दिकमङ्गलानि । तस्याग्रतः पटलिकागत कल्पवृक्षपुष्पत्रजश्च दधिरे सुरराजवध्वः ॥७७ वेगेन मन्दरमवापुरमा मनोभिश्चैत्यालयैरकृतकैः कृतभूरिशोभम् । अध्वश्रमं श्लथयता त्रिगुणान्वितेन तत्सानुजेन 'मरुतो मरुतोपगूढाः ॥७८ आसाद्य पाण्डुकवनं विबुधैर्नगस्य तस्यापि पञ्चशतयोजनमात्रदीर्घा । दीघा विस्तृतिरथो युगयोजनोच्चा तैः पाण्डुकम्बलशिला शरदिन्दुपाण्डः ॥७९ सो ठीक ही है क्योंकि किसी अन्य कार्य से विद्वान् भो न करने योग्य कार्य करता है ॥ ७२ ॥ इन्द्राणी जिसे कमल के समान कान्ति वाले दोनों हाथों से धारण किये हुए थे ऐसे जिन बालक को शरद् ऋतु के समान सफ़ेद शरीर के धारक तथा मद की गन्ध से भ्रमर समूह को आकृष्ट करने वाले ऐरावत हाथी के स्कन्ध पर रख कर देवों से अनुगत इन्द्र आकाश मार्ग ले गया ॥ ७३ ॥ उस समय नूतन मेघ की गर्जना के समान गम्भीर तथा कानों को सुख देने वाला तुरही का शब्द दशों दिशाओ को व्याप्त करता हुआ सब ओर फैल रहा था तथा किन्नरों के इन्द्र आकाश में ऐसा गान गा रहे थे जो जिनेन्द्र भगवान् के यश को सूचित कर रहा था, मनोहर था, अनुपम था और द्रुत मध्य तथा विलम्बित इन तीन मार्गों से अनुगत था ॥ ७४ ॥ ईशानेन्द्र उन त्रिलोकीनाथ के ऊपर लगाये हुए उस छत्र को धारण कर रहा था जो चन्द्रबिम्ब की कान्ति को हरने वाला था, जिसने दिशाओं को सफेद कर दिया था और जो आकाश में ऊपर की ओर जाते हुए उनके मूर्ति यश के समान जान पड़ता था ।। ७५ ।। दोनों ओर स्थित हाथियों पर आरूढ सानत्कुमार और माहेन्द्र के हाथों में धारण किये हुए चामरों से जिसकी दिशाएं रुक गई थीं ऐसा आकाश उस समय ऐसा जान पड़ता था मानों उन जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करने के लिये स्वयं पीछे-पीछे आते हुए क्षीरसमुद्र से ही घिरा हो ।। ७६ ।। भगवान् के आगे इन्द्राणियां, चमर स्फटिक का दर्पण, पङ्खा, झारी और उन्नत कलश आदि मङ्गल द्रव्यों तथा एक प्रकार की टोकनी में रखी हुई कल्प वृक्ष के फूलों की मालाओं को धारण कर रही थीं ॥ ७७ ॥ वे देव वेग से मनों को साथ अकृत्रिम चैत्यालयों से अत्यधिक सुशोभित सुमेरु पर्वतपर पहुँच गये । वहाँ उसके शिखर पर उत्पन्न शीत मन्द और सुगन्ध इन तीन गुणों से सहित, तथा मार्ग के श्रम को शिथिल करने वाली वायु ने उन देवों का आलिंगन किया ॥ ७८ ॥ देवों ने मेरुपर्वत १. मरुतो देवाः । २. मरुता पवनेन । ३. आपि प्राप्ता ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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