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________________ सप्तदशः सर्गः न प्राप किञ्चिदपि गर्भनिवासदुःखं कामं मलैरनुपसंप्लुत कोमलाङ्गः । पङ्कानुलेपरहितस्य सरिज्जलान्तर्मग्नस्य पद्ममुकुलस्य किमस्ति खेदः ॥५३ गर्भस्थितस्य विमलावगमप्रणुत्रं मोहान्धकारमिव चित्तगतं वमन्तौ । तस्याः स्तनौ सपदि नीलमुखावभूतां पीनोन्नतौ कनककुम्भनिभौ मृगाक्ष्याः ॥५४ आपाण्डुतां तनुरिया तदा नताङ्गया निर्यत्तदीययशसा धवलीकृतेव । पूर्व तथा न विरराज वलित्रयेण तस्या यथोदरमनुत्वणमेधनेन ॥५५ तस्यास्त्रिसंध्यमकृतैत्य 'मनुष्यधर्मासेवां स्वयं पटलिकानिहितानि बिभ्रत् । क्षौमाङ्गरागसुमनोमणिभूषणानि प्रख्यापयन्निव जिने निहितां स्वभक्तिम् ॥५६ तृष्णाविहीनमथ गर्भगतं दधाना तं दौहृदेन न कदाचिदसौ बबाधे । एष क्रमोऽयमिति पुंसवनं नरेन्द्रस्तस्याश्चकार विबुधैरपि पूजितायाः ॥५७ दृष्टे ग्रहैरथ निजोच्चगतैः समग्रैर्लग्ने यथापतितकालमसूत राज्ञी । चैत्रे जिनं सिततृतीयजयानिशान्ते सोमाह्नि चन्द्रमसि चोत्तरफाल्गुनिस्थे ॥५८ आशाः प्रसेदुरथ देहभृतां मनोभिः सर्वाः समं वियदधौतमियाय शुद्धिम् । पेते मदालिचितया सुरपुष्पवृष्टया नेदुस्तदा नभसि दुन्दुभयश्च मन्द्रम् ॥५९ २३७ और अवधि इन तीन ज्ञानों से सहित था ॥ ५२ ॥ जिसका कोमल शरीर मल के उपद्रव से सर्वथा रहित था ऐसे उस बालक ने गर्भवास का कुछ भी दुःख प्राप्त नहीं किया था सो ठोक ही है क्योंकि पङ्क के सम्बन्ध से रहित तथा नदी जल के भीतर निमग्न कमल कुड्मल को क्या खेद होता है ? अर्थात् नहीं होता ॥ ५३ ॥ उस समय मृगनयनी प्रियकारिणी के स्थूल उन्नत तथा स्वर्ण कलश के तुल्य स्तन शीघ्र ही मलिन मुख हो गये थे इससे जान पड़ते थे मानों गर्भस्थ बालक के निर्मल ज्ञान से प्रेरित हृदय स्थित मोहान्धकार को ही उगल रहे हों ॥ ५४ ॥ नताङ्गी प्रियकारिणी का शरीर उस समय कुछ-कुछ सफेदी को प्राप्त हो गया था उससे ऐसा जान पड़ता था मानों गर्भ स्थित बालक के बाहर निकलते हुए यश से ही सफ़ेद हो गया था । तथा उसका उदर पहले जिस प्रकार त्रिवलियों से सुशोभित होता था उस प्रकार अब अत्यधिक वृद्धि हो जाने से सुशोभित नहीं होता था । भावार्थ - उदर में वृद्धि हो जाने के कारण नाभि के नीचे पड़ने वाली उदर की तीन रेखाएं नष्ट हो गई थीं ॥ ५५ ॥ पिटारे में रखे हुए रेशमी वस्त्र अङ्गराग, पुष्प, तथा आभूषणों को धारण करने वाला कुबेर तीनों संध्याओं में आकर माता की सेवा करता था उससे ऐसा जान पड़ता था मानों वह अपनी जिन भक्ति को ही प्रकट कर रहा हो ॥ ५६ ॥ तृष्णारहित, गर्भ स्थित बालक को धारण करती हुई प्रियकारिणी दोहला से कभी भी पीड़ित नहीं हुई थी । यद्यपि वह देवों ने द्वारा भी पूजित थी तो भी राजा ने 'यह कुल की रीति है' ऐसा समझकर उसका पुंसवन संस्कार किया था ॥ ५७ ॥ तदनन्तर अपने उच्च स्थान में स्थित समस्त ग्रहों की जिस पर दृष्टि पड़ रही थी ऐसी लग्न में, चैत्र शुक्लत्रयोदशी के प्राप्तःकाल सोमवार के दिन जबकि चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर स्थित था रानी ने यथा समय जिन बालक को उत्पन्न किया ॥ ५८ ॥ तत्पश्चात् उस १. " कुबेर: मनुष्यधर्मा धनदो राजराजो धनाधिपः" इत्यमरः ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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