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________________ २३४ वर्धमानचरितम् पीनोन्नतस्तन घटद्वयभूरिभारताम्यत्तनु त्रिवलिका त्रिशिराभिधाना । लीलावतं सितसुरद्रुमचारुपुष्पा पुष्पप्रहाससुभगापि च पुष्पचूला ॥३३ चित्राङ्गदा कनकचित्रसमाह्वया च तेजोऽभिभूतकनका कनकादिदेवी । द्राग्वारुणी च सुभगा प्रियकारिणीं तामासेदुरानतशिरोनिहिताग्रहस्ताः ॥३४ ताभिः स्वभाव रुचिराकृतिभिः परीता सात्यन्तकान्तिसहिता नितरां विरेजे । एकापि लोकनयनोत्सवमातनोति तारावलीवलयिता किमु 'चन्द्रलेखा ॥३५ तिर्यग्विजृम्भकसुराश्च निधि दधाना- स्तत्राज्ञया प्रतिदिशं मुमुचुर्धनेशः । सार्धत्रिकोटिपरितः प्रमदाय रत्नं लोकस्य पञ्चदश विस्फुरितांशु मासान् ॥३६ सौधे धावते मृदुतले रात्रौ सुखेन शयिता प्रियकारिणी सा । स्वप्नानिमानथ जिनाधिपतिप्रसूतिप्रख्यापकानुषसि भव्यनुतान पश्यत् ॥३७ ऐन्द्रं गजं मदजलार्द्र कपोलमूलं प्रोत्तुङ्ग मिन्दुधवलं वृषभं नदन्तम् । पिङ्गाक्षमुज्ज्वलसटं मृगराजमुग्रं लक्ष्मीं मुदा वनगजैरभिषिच्यमानाम् ॥३८ भूत शिर पर हस्ताञ्जलि लगाकर शीघ्र ही प्रियकारिणी - त्रिशला के समीप आ पहुँचीं ॥ ३२३४ ।। स्वभाव से सुन्दर आकृति वाली उन देवियों से घिरी हुई, अत्यधिक कान्ति से युक्त वह प्रकारिणी अत्यन्त सुशोभित हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमा की लेखा अकेली होने होने पर भी मनुष्यों के नयनानन्द को विस्तृत करती है फिर ताराओं की पङ्क्ति से घिरी हो तो कहना ही क्या है ? ।। ३५ ।। निधियों को धारण करने वाले तिर्यग्वजृम्भक नामक देव, कुबेर आज्ञा से वहाँ प्रत्येक दिशा में चारों ओर लोगों के हर्ष के लिये पन्द्रह महीने तक देदीप्यमान किरणों से सहित साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा करने लगे || ३६ || तदनन्तर चूना से सफ़ेद महल में रात्रि के समय कोमल हंस तूल के विस्तर पर सुख सोयी हुई प्रियकारिणी ने जब प्रातःकाल होने वाला था तब जिनेन्द्रभगवान् के जन्म को सूचित करने वाले तथा भव्य जीवों के द्वारा स्तुत इन स्वप्नों को देखा ॥ ३७ ॥ जिसके कपोलों का मूलभाग मद रूपी जल से आर्द्र था ऐसे ऐरावत हाथी को, ऊंचे तथा चन्द्रमा के समान सफ़ेद शब्द करते हुए बैल को, पीली पीली आँखों और उज्ज्वल सटाओं से सहित भयंकर सिंह को, वन के हाथी हर्ष से जिसका अभिषेक कर रहे थे ऐसे लक्ष्मी को, जिसके ऊपर भ्रमरों का समूह मँडरा रहा था ऐसे आकाश में स्थित माला युगल को, गाढ अन्धकार को नष्ट करने वाले पूर्ण चन्द्रमा को कमलों को विकसित करने वाले बाल सूर्य को, निर्मल जल में मद से क्रीडा करते हुए मीन युगल को, जो कमलों से घिरे थे तथा जिनके मुख फलों से ढँके थे ऐसे दो कलशों को, कमलों से रमणीय तथा स्फटिक के समान स्वच्छ जल से सहित सरोवर को, लहरों से दिङ्मण्डल को आच्छादित करने वाले समुद्र को, जिसका शरीर मणियों की किरणों से विभूषित था ऐसे सिंहासन को, जिस जिस पर ध्वजा फहरा रही थी ऐसे बहुत बड़े देव विमान को, जिसमें मदमाती नाग कुमारियाँ निवास करती थीं ऐसे नाग भवन को, जिसकी किरणों का समूह आकाश में विस्तृत हो रहा था १. चन्द्रलोका ब० । २. शक्राज्ञया ब० । ३. सार्धं त्रिकोटि म० । ४ नुतान्यपश्यत् म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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