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षोडशः सर्गः
मालभारिणी मनसि प्रशमं निधाय शुद्धं विधिना साधु तपश्चचार घोरम् । भुवि भव्यजनस्य वत्सलत्वात्प्रियमित्रः प्रियमित्रतां प्रयातः ॥१९५
उपजातिः अथायुरन्ते तपसा तनुत्वं तनुं स यातां विधिना विहाय । कल्पं सहस्रारमनल्पपुण्यैः स्वैरजितं वजितमाप खेदैः ॥१९६
___ शार्दूलविक्रीडितम् तत्राष्टादशसागरायुरमरस्त्रीणां मनोवल्लभो
हंसाङ्के रुचकाह्वये प्रमुदितस्तिष्ठन् विमाने परे। बालामात्मतनूरुचा रुचिरया सूर्यप्रभा हपयन्
दिव्यामष्टगुणां बभार सुचिरं सूर्यप्रभः संपदम् ॥१९७ इत्यसगकृते वर्द्धमानचरिते सूर्यप्रभसंभवो नाम
पञ्चदशः सर्गः समाप्तः
षोडशः सर्गः
उद्गताछन्दः अथ नाकसौख्यमनुभूय बहुविधमचिन्त्यवैभवम् ।
सङ्गरहितभवतीर्य च स त्वमभूरिह प्रकृतिसौम्यनन्दनः ॥१ देकर तथा भक्ति पूर्वक क्षेमंकर जिनेन्द्र के समीप जाकर आत्मकल्याण के लिये सोलह हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली ।। १९५ ॥ वात्सल्य गुण के कारण पृथिवी पर भव्यजनों की प्रिय मित्रता को प्राप्त हुए प्रियमित्र मुनि ने मन में विशुद्ध शान्ति को धारण कर विविध प्रकार का कठिन सम्यक् तप किया ॥ १९६ ॥ आयु के अन्त में वे तप से कृशता को प्राप्त हुए शरीर को विधिपर्वक छोड कर अपने तीव्र पूण्य से अजित तथा खेद से वजित सहस्रार स्वग हआ ॥ १९७॥ वहाँ, जिसको अठारह सागर प्रमाण आय थी, जो देवाङ्गनाओं के हृदय को प्रिय था, जो हंसचिह्न से सहित रुचक नामक उत्कृष्ट विमान में बड़ी प्रसन्नता से स्थित था, तथा अपने शरीर की सुन्दर प्रभा से जो प्रातःकाल के सूर्य की प्रभा को लज्जित कर रहा था ऐसा वह सूर्यप्रभ देव चिरकाल तक अणिमा महिमा आदि आठ गुणों से सहित दिव्य सम्पदा-स्वर्ग की विभूति को धारण करता रहा ।। १९८॥
इस प्रकार असग कवि कृत वर्द्धमान चरित में सूर्यप्रभ देव की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पन्द्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ।
सोलहवाँ सर्ग अथानन्तर तूं अचिन्त्यवैभव से युक्त नाना प्रकार के स्वर्ग सम्बन्धी सुख भोग कर किसी आसक्ति के विना वहाँ से अवतीर्ण हुआ तथा इस श्वेतातपत्रा नगरी में प्रकृति से सौम्य नन्दन
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