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________________ प्रस्तावना वर्धमानचरित की कथावस्तु वर्धमानचरित १८ सोंमें पूर्ण हुआ है । इसकी कथावस्तु निम्नलिखित प्रकार है श्वेतातपत्रा नगरीमें राजा नन्दिवर्धन रहता था। उसकी प्रियाका नाम वीरवती था। इन दोनोंके नन्दन नामका पुत्र हुआ । नन्दन रूपवान तो था ही, समस्त विद्याओंमें भी निपुण था। एक दिन वह समवयस्क राजकुमारोंके साथ वनक्रीड़ा करनेके लिये गया । वहाँ ध्याननिमग्न मुनिराजके दर्शन कर उसने अपने आपको कृतकृत्य माना। राजाने नन्दनको युवराज बनाया और प्रियंकरा कन्याके साथ उसका विवाह कर दिया। राजा नन्दिवर्धनने एक जिनमन्दिरका निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा कराई। एक दिन आकाशमें मेघखण्डको विलीन होता देख राजाको संसारसे विरक्ति हो गई, अतः वह नन्दनको राज्य सौंप कर वन में दीक्षित हो गया। नन्दनने राज्यभार संभाला। उसके नन्द नामका पुत्र हुआ। एक दिन वनपालके द्वारा मुनिराजके पधारनेकी सूचना पाकर नन्दन समस्त परिवारके साथ मुनिराजकी वन्दना करनेके लिये वनमें गया। उस समय कुमार नन्दन भी उसके साथ गया था। नन्दनकी सुन्दरता देख नगरकी नारियाँ विह्वल हो गयीं। राजा नन्दनने मुनिराजकी वन्दना कर उनसे अपनी भवावली पूछी। मनिराजने कहा कि तु इस भवसे पूर्व नवम भवमें सिंह था। जब तू गुफाके आगे विश्राम कर रहा था तब आकाशमार्गसे आकर अमितकोति और अमरप्रभ नामक दो चारण ऋद्धिधारी मुनि सप्तपर्ण वृक्षके नीचे बैठकर उच्चस्वरसे प्रज्ञप्तिका पाठ करने लगे। उनकी वाणी सुनकर सिंह गुफासे बाहर आया और शान्तभावसे मुनिराज युगलके सामने बैठ गया। अमितकीति मनिराज उसे संबोधित करते हुए कहने लगे-तुने रागद्वेषके कारण अनेक भवोंमें परिभ्रमण किया है। उनमेंसे कुछका इतिवृत्त तू ध्यान से सुन । एक बार पुण्डरीकिणी नगरीका धर्मात्मा सेठ धर्मस्वामी धनसम्पन्न लोगोंके साथ रत्नपुर नगरकी ओर जा रहा था। उसी संघके साथ एक सागरसेन नामक मुनि भी गमन कर रहे थे। एक समय डाकुओंके दलने उस संघपर आक्रमण किया जिससे समस्त संघ छिन्नभिन्न हो गया। मुनिराज सागरसेन अकेले रहनेसे दिग्भ्रान्त हो गये। भटकते हुए वे मधुवनमें पहुँचे। वहाँ उन्हें काशी नामक स्त्रीके साथ पुरुरवा नामका भोल मिला। भीलने मुनिराजसे धर्मका उपदेश सुना जिससे वह अत्यन्त शान्त हो गया। भक्तिवश पुरुरवाने मनिराजको सीधे मार्गपर लगा दिया जिससे मुनिराज किसी आकुलताके बिना इष्ट स्थानपर चले गये। पुरुरवा धर्मका आचरण कर सौधर्मस्वर्गमें दो सागरकी आयुवाला देव हुआ। वहाँ से चयकर भरत क्षेत्रके प्रथम तीर्थंकर वृषभदेवके बड़े पुत्र भरतके उसकी धारिणी नामक स्त्रीसे मरीचि नामका पुत्र हुआ। मरीचिने अपने बाबा भगवान् आदिनाथके साथ मुनिदीक्षा धारण की परन्तु अन्तमें तपसे च्युत हो गया फिर भी वह कायक्लेशके फलस्वरूप पञ्चमस्वर्गमें दश सागरकी आयु वाला देव हुआ । वहाँसे आकर मैत्रायण फिर देव, पुष्यमित्र फिर देव, अग्निसह फिर देव, अग्निमित्र फिर देव, भारद्वाज फिर देव, और स्थावर फिर देव हुआ। मगधदेशकी राजगृहनगरीमें राजा विश्वभूति राज्य करता था। एक दिन राजसभामें आये हुए द्वारपालका जराजर्जरित शरीर देखकर राजा विश्वभूतिको संसारसे वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे वह अपने भाई विशाखभूतिको राज्यभार और अपने पुत्र विश्वनन्दीको युवराजपद सौंपकर दीक्षित हो गया। विशाख
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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