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________________ १८६ वर्धमानचरितम् वसन्ततिलकम् हिंसादिषु स्फुटमिहैव परत्र चापायावद्यदर्शनमनन्यधिया निकामम् । संसारवासचकितेन सुभावनीयमन्तर्धनं शमवतामिदमेव सारम् ॥५९ उपजातिः सर्वेषु सर्वेषु च भावनीया मैत्री प्रमोदश्च गुणाधिकेषु । कारुण्यमार्तेषु च दुःखितेषु सदाऽविनेयेषु पराभ्युपेक्षा ॥ ६० कायस्वभावो जगतः स्थितिश्च संवेगवैराग्यनिमित्तमार्यैः । संचिन्तनीयं सततं यथावत्समासतो बन्धमुदाहरिष्ये ॥ ६१ मिथ्यात्वभावाविरतिप्रमादाः कषाययोगाः खलु हेतवः स्युः । बन्धस्य मिथ्यात्वमपि प्रतीतं प्रचक्षते सप्तविधं मुनीन्द्राः ॥६२ tfsन्द्रियाणां विषयप्रभेदान्नरेन्द्र षट्कायविकल्पतश्च । द्विषड्विधां चाविति प्रतीहि तामेव चासंयममित्युशन्ति ॥ ६३ संसार वास से भयभीत मनुष्य को एकाग्रचित्त होकर हिंसादि के विषय में ऐसा स्पष्ट विचार करना चाहिये कि ये पाप इसी लोक में अपाय - विघ्न बाधाओं और परलोक में पाप बन्ध के कारण हैं । वास्तव में ऐसा विचार करना ही शान्त मनुष्यों का श्रेष्ठ अन्तर्धन - अन्तरङ्ग सम्पत्ति है ॥ ५९ ॥ समस्त प्राणियों में मैत्रीभाव, गुणाधिक मनुष्यों में प्रमोदभाव, दुःखी तथा पीड़ित मनुष्यों में कारुण्य भाव और अविनेय जीवों में सदा उपेक्षाभाव का चिन्तन करना चाहिये ।। ६० ।। आर्यपुरुषों को संवेग और वैराग्य के लिये शरीर का स्वभाव तथा जगत् की स्थिति का निरन्तर चिन्तन करना चाहिये । अब इसके आगे संक्षेप से बन्धतत्त्व का यथार्थ वर्णन करेंगे ॥ ६१ ॥ मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच निश्चय से बन्ध के कारण हैं । इनमें प्रसिद्ध मिथ्यात्व को मुनिराज सात प्रकार का कहते हैं । भावार्थ - एकान्त, विपरीत, संशय, अज्ञान, वैनयिक, गृहीत और अगृहीत के भेद से मिथ्यात्व सात प्रकार का कहा है । अन्य ग्रन्थों में मिथ्यात्व के पांच या दो भेद कहे गये हैं पर यहाँ पांच और दो भेदों को मिला कर सात भेदों का निरूपण किया गया है ॥ ६२ ॥ हे राजन् ! छह इन्द्रियों के विषयों तथा छह काय के जीवों के विकल्प से विरति - निवृत्ति न होने को बारह प्रकार की अविरति जानो । इसी को मुनिराज असंयम
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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