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________________ १८४ वर्धमानचरितम् वियोगिनी नितरामपि तद्विपर्ययो विनयेनावनतिर्गुणाधिकेषु' । मदमाननिरासनं जिनैरितरस्यास्त्र व हेतुरीरितः ॥५० वसन्ततिलकम् दानादिविघ्नकरणं परमन्तराय कर्मावस्य निगदन्ति निमित्तमार्याः । सामान्यतः शुभ इति प्रतिपादितो यः पुण्यस्य तं शृणु सुविस्तरतोऽमिधास्ये ॥५१ उपजातिः हिंसा नृतस्ते यरतिव्यवायपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतं स्यात् । सा देशतो भद्र समस्तनश्च प्रकीर्तिताणुर्महतीति सद्भिः ॥५२ स्थैयार्थमेषामथ भावनाः स्युः सर्वज्ञदिष्टाः खलु पञ्च पञ्च । सिद्धास्पदं सौधमिवारुरुक्षोनिःश्रेणयो भव्यजनस्य नान्याः ॥५३ वंशस्थम् परां मनोगुप्तिमथैषणादिकं वदन्ति सन्तः समितित्रयं परम् । प्रयत्नसं वीक्षितपानभोजनं व्रतस्य पूर्वस्य हि पञ्च भावनाः ॥५४ गोत्र कर्म के आस्रव का निमित्त कहते हैं ।। ४९ ।। इससे बिलकुल विपरीत प्रवृत्ति का होना, गुणाधिक मनुष्यों में विनय से नम्रता का भाव होना और मद तथा मान का निराकरण करना इन सब को जिनेन्द्र भगवान् ने उच्च गोत्र का आस्रव कहा है ॥ ५० ॥ दान आदि में विघ्न करना, इसे आर्य पुरुष अन्तराय कर्म के आस्रव का उत्कृष्ट निमित्त कहते हैं। अब इसके आगे जिसे सामान्य रूप से शुभ कहा गया है उस पुण्य कर्म के आस्रव को विस्तार से कहूँगा, उसे सुनो ॥५१॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से निवृत्ति होना व्रत है । है भद्र ! वह निवृत्ति एकदेश और सर्वदेश से होती है । सत्पुरुषों ने एकदेश निवृत्ति को अणुव्रत और सर्वदेश निवृत्ति को महाव्रत कहा है ॥ ५२ ॥ इन व्रतों की स्थिरता के लिये सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा कही हुई पाँच पाँच भावनाएँ होती हैं । ये भावनाएँ मोक्षरूपी महल पर चढ़ने के इच्छुक भव्यजीव के लिये मानों नसैनी है अन्य कुछ नहीं ॥ ५३ ॥ उत्कृष्ट मनो गुप्ति, एषणा आदिक तीन उत्कृष्ट समितियाँ तथा प्रयत्नपूर्वक देखे हुए भोजन पान का ग्रहण करना इन पाँच को सत्पुरुष १. द्वितीयपादो मालभारिण्याः । २. सर्वज्ञदृष्टाः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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