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________________ पञ्चदशः सर्गः १७२ कर्माङ्गानि स्वान्तवाणीविचेष्टाः प्राणापानौ जीविताजीविते च । सौख्यं दुःखं चापि निर्वर्तयन्ति स्कन्धा जन्तोर्मज्जतो जन्मवाद्धौ ॥२० कायालापस्वान्तकमैकयोगो यः सर्वज्ञैरास्रवः स प्रणीतः। द्वौ तस्योक्तौ पुण्यपापावहत्वाद्भदौ स्यातां तौ शुभश्चाशुभश्च ॥२१ उक्तौ तस्य द्वावधीशौ कषायैः संयुक्तश्चासंयुतचेति जैनैः। आद्यस्यासौ संपरायाय' भर्तुः स्यादन्यस्य व्यक्तमीर्यापथाय ॥२२ ये क्रोधाद्या इन्द्रियाण्यव्रतानि ज्ञेया विद्भिः पूर्वभेदाः क्रियाश्च । चत्वारः स्युः पञ्च पञ्च प्रभेदास्तेषां युक्ता पञ्चभिविंशतिश्च ॥२३ तीव्रातीव्रज्ञातविज्ञातभावद्रव्योद्रेकैस्तद्विशेषोऽवगम्यः। द्रव्यं विद्यात्साधनं द्विप्रकारं जीवाजीवौ तद्वदन्त्यागमज्ञाः ॥२४ संरम्भाद्यैरन्वितोऽष्टातिरिक्तं क्रोधाद्यैश्च स्याच्छतं पूर्वभेदाः। सैका पङ्क्तिर्यः स निर्वर्तनाद्यैर्युक्तो भेदश्चेतरस्य प्रणीतः ॥२५ द्वितीयादिक प्रदेशों से रहित है वह अणु कहलाता है। समस्त स्कन्ध भेद और संघात से उत्पन्न होते हैं और अणु, मात्र भेद से उत्पन्न होता है ॥ १९ ॥ स्कन्ध, संसार सागर में गोता लगाने वाले जीव के कर्म, शरीर, मन और वचन की विविध चेष्टाएँ, प्राण अपान-श्वास उच्छ्वास, जीवन मरण, सुख और दुःख को उत्पन्न करते हैं ॥ २० ॥ काय वचन और मन की क्रिया रूप जो एक योग है उसे सर्वज्ञ भगवान् ने आस्रव कहा है। पुण्य और पाप का साधक होने से आस्रव के दो भेद कहे गये हैं यही शुभास्रव और अशुभास्रव कहलाते हैं ॥ २१ ॥ जिनेन्द्र भगवान् ने आस्रव के दो स्वामी कहे हैं एक कषायों से सहित और दूसरा कषायों से रहित । कषाय सहित स्वामी का आस्रव साम्पराय के लिये और कषाय रहित स्वामी का आस्रव ईर्यापथ के लिये है। भावार्थ-आस्रव के दो भेद हैं एक साम्परायिक आस्रव और दसरा ईर्यापथ आस्रव । संापराय अर्थात संसार जिसका प्रयोजन है वह सांपरायिक आस्रव कहलाता है । यह कषाय सहित जीवों के होता है और पहले से लेकर दशवें गुण स्थान तक होता है। जिस आस्रव के बाद मात्र प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होते उसे ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। यह आस्रव कषाय रहित जीवों के होता है तथा ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक ही होता है ।। २२ ।। क्रोधादिक कषाय, इन्द्रियाँ, अव्रत और क्रिया ये सापरायिक आस्रव के भेद विद्वानों के द्वारा जानने योग्य हैं। उनके क्रम से चार, पाँच, पाँच और पच्चीस प्रभेद होते हैं । भावार्थ-सांपरायिक आस्रव के कषाय, इन्द्रिय, अव्रत और क्रिया ये चार मूल भेद हैं। इनमें कषाय के क्रोधादिक चार, इन्द्रियों के स्पर्शनादि पाँच, अव्रत के हिंसादि पांच और क्रिया के सम्यक्त्ववर्धिनी आदि पच्चीस उत्तर भेद हैं ।। २३ ॥ तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, द्रव्य-अधिकरण और उद्रेक-वीर्य के द्वारा उस आस्रव में विशेषता जानना चाहिये । आस्रव में जो कारण है उसे द्रव्य जानना चाहिये। आगम के ज्ञाता पुरुष उसके जीव और अजीव इस तरह दो भेद कहते हैं ।। २४ ।। जीवाधिकरण आस्रव के संरम्भा१. संपरायस्य भर्ता म० । २. सार्द्ध ब० । ३. प्रभेदात् म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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