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________________ १४४ वर्धमानचरितम् स्वधामभिः कुन्ददलावदातैरुत्सारयन्यः परितस्तमिस्राम् । सृजन्निवाभाति सितेतरासु ज्योत्स्नामपूर्वामपि शर्वरीषु ।।८ श्रेण्यामपाच्यामथ तत्र हैमप्राकारहाट्टविराजितत्वात् । अन्वर्थनामास्ति पुरं पुराणां ललामकं हेमपुरं पुराणम् ॥९ निसर्गवैमल्यगुणेषु यस्मिन् रत्नोपलेष्वेव परं खरत्वम् । संलक्ष्यतेऽन्तर्मलिनत्वमिन्दोः कलावतां पक्षवतां च मध्ये ॥१० त्यागान्वितोव्यत्र सदा विरूपः परं बुधानां कुलमप्रमाणम् । भवत्यनिष्टो यतिदेव योगक्रियासु दक्षः परलोकभीरुः ॥११ नहीं छोड़ता है। भावार्थ-यद्यपि कुमुदों का समह रात्रि को विकसित होता है तो भी तट पर लगे हुए मोतियों की सघन कान्ति रूपी चांदनी से वह सदा व्याप्त रहता है इसलिये दिन के समय भी विकसित के समान जान पड़ता है ॥ ७॥ कुन्द की कलियों के समान अपनी सफेद कान्ति से अधेरो रात को चारों ओर से दूर हटाता हुआ जो पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो काली रात्रियों में अपूर्व चांदनी की ही रचना कर रहा हो ॥ ८॥ तदनन्तर उस विजयाध को दक्षिण श्रेणी में नगरों का आभूषण स्वरूप हेमपुर नाम का एक प्राचीन नगर है जो सुवर्णमय कोट, महल तथा अट्टालिकाओं से सुशोभित होने के कारण सार्थक नाम वाला है ॥९॥ जहां स्वभाव से निर्मल गुण वालों में यदि अत्यधिक तीक्ष्णता थी तो रत्नमय पाषाण में हो थी वहां के मनुष्यों में नहीं थी। इसी प्रकार कलावान् और पक्षवान् वस्तुओं के मध्य यदि अन्तरङ्ग में मलिनता थी तो चन्द्रमा में ही थी वहां के मनुष्यों में नहीं थी। भावार्थ-स्वाभाविक निर्मलता को धारण करने वाले पदार्थों के मध्य यदि किसी में अत्यन्त तीक्ष्णता-स्पर्श की कठोरता थी तो रत्नोत्पल-मणियों में ही थी, स्वाभाविक निर्मलता-परिणामों की उज्ज्वलता को धारण करने वाले मनुष्यों में अत्यन्त तीक्ष्णता-अत्यधिक निर्दयता नहीं थी। इसी प्रकार कलावान्-सोलह कलाओं से युक्त और पक्षवान्–शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष से सहित पदार्थों के मध्य यदि अन्तरङ्ग में मलिनता-कालापन था तो चन्द्रमा में ही था, वहां के कलागन्चौंसठ कलाओं से सहित तथा पक्षवान्-सहायकों से युक्त मनुष्यों में अन्तरंग की मलिनता-कलुषितता नहीं थी ॥ १० ।। जहां त्याग से सहित मनुष्य ही सदा विरूप-रूपरहित-शरोर रहित होता था अर्थात् त्याग के प्रभाव से मुक्ति प्राप्त कर रूपरहित होता था अथवा 'विशिष्टं रूपं यस्य सः' इस समास के अनुसार त्यागी मनुष्य ही विशिष्ट रूप से मुक्त होता था वहां का अन्य मनुष्य विरूपकुरूप नहीं था। जहाँ किसी का कुल यदि अत्यधिक अप्रमाण था तो बुधों-बुध ग्रहों का कुल ही अप्रमाण था, वहाँ के बुधों-विद्वानों का कुल अप्रमाण नहीं था। [ ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रसिद्धि है कि चन्द्र ने गुरु-पत्नी के साथ समागम किया था उससे बुध ग्रह की उत्पत्ति हुई थी इसलिये बुधों-बुधग्रहों का कुल ही अप्रमाण था बुधों-विद्वानों का नहीं] जहाँ कोई अनिष्ट थास्त्री-पुत्र आदि इष्ट जनों से रहित था तो यति-मुनि ही था, वहाँ कोई मनुष्य अनिष्ट-अप्रिय नहीं था। इसी प्रकार जहाँ यदि कोई परलोकभीरु-नरक आदि परलोक से डरने वाला था तो योगक्रिया में दक्ष-ध्यान में समर्थ मनुष्य ही था वहाँ का कोई ऐसा मनुष्य जो कि योग क्रिया
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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