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________________ १४२ वर्धमानचरितम् उपजातिः अनाप्तपूर्वं भवतां प्रसादात्सम्यक्त्वमासाद्य यथावदेतत् । त्रैलोक्यचूडामणिशेखरत्वं प्रयातवान्संप्रति निर्वृतोऽस्मि ॥ ६८ शिखरिणी जरावीचीभङ्गो जननसलिलो मृत्युमकरो महामोहावर्तो गदनिवहफेनैः शबलितः। मया संसाराब्धिर्भवदमलवाक्यप्लवभूता समुत्तीर्णः किञ्चित्प्रभवनतटीशेषमचिरात् ॥६९ वसन्ततिलकम् इत्थं निगद्य विबुधः स पुनः पुनश्च संपूज्य तौ यतिवृषौ प्रययौ स्वधाम । विन्यस्य 'मूर्धनि चिराय तदङ्घिधूलि रक्षार्थभूतिमिव संसृतियातुधान्याः ॥७० मालिनी शरदुडुपतिरश्मिश्रीमुषा हारयष्टया सह हृदयविभागे बद्धसम्यक्त्वसम्पत् । अभिमतसुरसौख्यं निर्विशनप्रमत्तो जिनपतिपदपूजां तत्र कुर्वन्नुवास ॥७१ इत्यसगकृते श्रीवर्द्धमानचरिते सिंहप्रायोपगमनो नामै एकादशः सर्गः॥११॥ कीचड़ से निकाला था वही मैं सिंह इन्द्र के समान श्रेष्ठ देव हुआ हूँ सो ठीक ही है क्योंकि साधुजनों के वचन पृथिवी में किसकी उन्नति नहीं करते हैं ? ॥ ६७ । आपके प्रसाद से अप्राप्तपूर्व सम्यक्त्व को यथार्थरूप से प्राप्त कर इस समय मैं इतना सुखी हुआ हूँ मानो तीन लोक की चूड़ामणि का सेहरा हो मुझे प्राप्त हुआ हो ॥६८।। आपके निर्मल वचनरूपी भाव को धारण करने वाले मैंने उस संसार रूपी सागर को शीघ्र ही पार कर लिया है जिसमें वृद्धावस्थारूप लहरें उठती रहती हैं, जन्म रूप पानी भरा है, मृत्युरूप मगर रहते हैं, मोहरूप बड़े-बड़े भंवर उठा करते हैं तथा जो रोगसमूह रूप फेनों से चित्रित है। कुछ भवरूप तट ही उसके शेष रहा है ।। ६९ ॥ इस प्रकार कह कर और बार-बार उन दोनों मुनिराजों को पूजा कर वह देव अपने स्थान पर चला गया। जाते समय वह संसार रूपी राक्षसी से रक्षा करने वाली भस्म के समान उनको चरण रज को चिरकाल तक अपने मस्तक पर धारण कर गया था ॥ ७० ॥ शरद् ऋतु के चन्द्रमा की किरणों की शोभा को अपहरण करने वालो हारयष्टि के साथ जिसने अपने हृदय भाग में सम्यक्त्वरूपी संपत्ति को धारण किया था तथा जो प्रमादरहित होकर जिनेन्द्र भगवान् के चरणों की पूजा करता था ऐसा वह देव वहां मनोवाञ्छित देवों के सुख का उपभोग करता हुआ निवास करने लगा॥ ७१ ॥ इस प्रकार असग कविकृत श्री वर्द्धमानचरित में सिंह के संन्यास का वर्णन करने वाला ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ। १. मूनि सुचिराय म०। २. गमनं म०
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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