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________________ एकादशः सर्गः १३७ निजतनुतरचर्मवर्मगूढं बहुविधरोगसहस्रवासगेहम् । कृमिकुलनिचितं च पूतिगन्धि स्थिरविकास्थिकृतैकयन्त्रकल्पम् ॥३३ बहुविधपरितापहेतुभूतं वपुरिदमीशमित्यवेत्य तस्मात् । अपनय नितरां ममत्वबुद्धि कथमवयन्न निजे मतिं विधते ॥३४ (त्रिफलम् ) शिवसुखमपुनर्भवं विवाधं निरुपममात्मभवं निरक्षमाप्तुम् । यदि तव मतिरस्ति सन्मृगारे त्यज खलु बाह्यभवान्तरं च सङ्गम् ॥३५ गृहधनवपुरादिकः समग्रो भवति स बाह्यपरिग्रहो दुरन्तः । बहुविधमथ रागलोभकोपप्रभृतिमवान्तरसङ्गमित्यवेहि' ॥३६ इति कुरु मनसि त्वमक्षयश्रीरवगमदर्शनलक्षणोऽहमात्मा। मम पुनरितरे च सर्वभावा विदितसमागमलक्षणा विभिन्नाः ॥३७ यदि निवससि संयमोन्नताद्रौ प्रविमलदृष्टिगृहोदरे परिघ्नन् । उपशमनखरैः कषायनागांस्त्वमसि तदा खलु सिंह भयसिंहः॥३८ हिततरमिह नास्ति किञ्चिदन्यज्जिनवचनादिति विद्धि निश्चयेन । बहुविधधनकर्मपाशमोक्षो भवति यतः पुरुषस्य तेन सर्वः॥३९ छिद्रों से सहित है, रज और वीर्य से उत्पन्न होने के कारण अपवित्र रहता है, नाना प्रकार के मल से सहित है, क्षय रूप है-विनाशी है, वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषों से युक्त है, नाना नसों के समूह से बँधा है, अपने अत्यन्त सूक्ष्म चर्म रूपी कवच से ढका है, नाना प्रकार के हजारों रोगों का निवास गृह है, कोड़ों के समूह से व्याप्त है, दुर्गन्ध युक्त है, सुदृढ तथा विशाल हड्डियों के द्वारा निर्मित यन्त्र के समान है तथा बहुत प्रकार के संताप का कारण है, ऐसा यह शरीर है, इस प्रकार जानकर उस शरीर से ममत्व बुद्धि को विलकुल दूर करो। तुम जानते हुए भी निज स्वरूप में बुद्धि क्यों नहीं लगाते ? ॥ ३२-३४ ॥ अपुनर्जन्म का कारण, बाधारहित, उपमारहित, आत्मोत्पन्न और अतीन्द्रिय मोक्ष सुख को प्राप्त करने की यदि तुम्हारी इच्छा है तो हे मृगराज ! तुम बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का निश्चय से त्याग करो ॥ ३५ ॥ घर, धन, शरीर आदिक जो समस्त पदार्थ हैं वह नाना प्रकार के दुःखदायक बाह्य परिग्रह हैं इसके सिवाय जो राग, लोभ, क्रोध आदिक हैं वह आभ्यन्तर परिग्रह हैं ऐसा जानो ॥ ३६ ॥ तुम मन में ऐसा विचार करो कि मैं अविनाशी लक्ष्मी से सहित, ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा हूँ, प्रसिद्ध संयोग लक्षण वाले जो अन्य भाव हैं वे सब मुझ से भिन्न हैं। ३७ ॥ यदि तू उपशम भाव रूपी नखों के द्वारा कषाय रूपी हाथियों को नष्ट करता हुआ सम्यग्दर्शन रूपी गुहा के मध्य से सहित संयम रूपी उन्नत पर्वत पर निवास करता है तो हे सिंह ! तू सचमुच ही श्रेष्ठ भव्य है ॥ ३८ ॥ इस संसार में जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के सिवाय निश्चय से और कोई पदार्थ अत्यन्त हितकारी नहीं है ऐसा १. अवैहि म०। २. एगोमे सासदोअप्पाणाण दसणलक्खणो । खेसा में बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्णा ।।-नियमसार १८
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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