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________________ नवमः सर्गः स्रग्धरा भुत्सृष्टं मदीयं क्रमयुगलरजस्तुल्यमत्यन्तरागात् प्राप्येदं लोष्ठखण्डं खलदलसदृशं गवितस्त्वं विमूढः । क्षुद्राणां वातितुष्टिर्भवति भुवि परा सिक्थमात्रेऽपि लब्धे काचिच्चेद्वास्ति शक्तिस्तव खलु हृदये शीघ्रमेतत्क्षिप त्वम् ॥९९ शार्दूलविक्रीडितम् चक्रं प्राप्य स विष्णुरेवमवदन्मत्पादयोस्त्वं नमे प्राक्ते विभवं करोमि कुमदं जह्या वृथा मानसम् । धरेण परुषं निर्भत्सतस्तत्क्षणात् इत्युक्ते तत्क्रुद्ध्वास्य शिरो गृहाण स इति क्षिप्रं हरिः प्राक्षिपत् ॥१०० मालभारिणी अवलम्ब्य हरेस्तदा तदाज्ञां विनिवृत्त्याशु रथाङ्गमाजिरङ्गे । समपातयदश्वकन्धरस्य स्फुरदचर्मुकुटं शिरः शिरोधेः ॥१०१ शार्दूलविक्रीडितम् ११७ हत्वैवं हयकन्धरं निजरिपुं चक्रेण धारानलज्वालापल्लवितेन तेन न तथा रेजे पुरोवर्तिना । वैराशंसनसंपदं सह नृपैः पश्यन्नभोलङ्घिनामाबद्धाभययाचनाञ्जलिभृतां चक्रेण विष्णुर्यथा ॥ १०२ इत्वसगकृते श्रीवर्द्धमानचरिते महाकाव्ये त्रिपृष्टविजयो नाम नवमः सर्गः तुल्य अथवा खली के टुकड़े के समान है ऐसे इस पत्थर के खण्ड रूप चक्र को पाकर तँ अत्यन्त राग से गर्वित और विमूढ हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवी पर एक सीथ के मिलने पर भी क्षुद्र मनुष्यों को अत्यन्त संतोष होता है । यदि तेरे हृदय में कुछ शक्ति है तो तूं शीघ्र ही इसे छोड़ ॥ ९९ ॥ चक्ररत्न को पाकर विष्णु ने इस प्रकार कहा कि तूं मेरे चरणों में नमस्कार कर और हृदय के भीतर विद्यमान इस मिथ्यागर्व को छोड़ दे तो मैं तेरा पहले जैसा वैभव कर दूंगा । इस प्रकार कहने पर अश्वग्रीव ने तत्काल जिसकी कठोर भर्त्सना की थी ऐसे विष्णु-नारायण पदधारी त्रिपृष्ट ने कुपित होकर 'इसका शिर ग्रहण करो' यह कहते हुए शीघ्र ही चक्र को चला दिया ॥ १०० ॥ उसी समय त्रिपृष्ट की उस आज्ञा का अवलम्बन लेकर वह चक्ररत्न शीघ्र ही युद्धभूमि में लौटा और उसने जिस पर देदीप्यमान किरणों से युक्त मुकुट लगा हुआ था ऐसे अश्वग्रीव के मस्तक को उसके कण्ठ से नीचे गिरा दिया ॥ १०१ ॥ इस प्रकार अपने शत्रु अश्वग्रीव को मारकर सामने खड़े हुए तथा चक्रधारा की अग्नि ज्वालाओं के द्वारा लाल-लाल पल्लवों से युक्त की तरह दिखनेवाले चक्ररत्न से वैर को सुचित करने वाली संपदा को राजाओं के साथ देखने वाला विष्णु उस प्रकार सुशोभित नहीं हुआ था जिस प्रकार कि अभय याचना के लिये अञ्जलि बाँधकर खड़े हुए विद्याधरों के चक्र समूह से सुशोभित हुआ था ॥ १०२ ॥ इस प्रकार असगकवि कृत श्रीवर्द्धमानचरित नामक महाकाव्य में त्रिपृष्ट की विजय का वर्णन करनेवाला नौवां सर्ग समाप्त हुआ । १. नमः म० । २. कुमुदं म० ब० । ३. जह्याद्दृथा ब० । ४. प्रेक्षिपत् म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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