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________________ १०८ वर्धमानचरितम् पपात कश्चिद्विवशो न बाणैरयोमयः कोलितरागबन्धः । तुरङ्गमादुत्पततोऽपि सादी दौःस्थ्यं न हि स्थेमपरिष्कृतानाम् ॥३८ 'छिन्ने परो दक्षिणबाहुदण्डे धृत्वा परेणासिलतां करेण । जघान शत्रु प्रहरन्तमग्ने विपत्सु वामोऽप्युपयोगमेति ॥३९ शरक्षताङ्गोऽपि तुरङ्गवर्यो जवं न पूर्व विजहौ न शिक्षाम् । वैवाश्ववारस्य विधेयतां च समो हि जात्यो विधुरे सुखे वा ॥४० कण्ठे निबद्धारुणचामरौधः शून्यासनः सम्मुखमाशु धावन् । विभ्रंशयन्दन्तिघटां न नाम्ना हरिस्तदासीक्रिययापि वाजी ॥४१ इतस्ततोऽधावत लोहबाणैर्विदारिताङ्गोऽपि हयो जवेन । निजाधिनाथस्यमृतस्य सद्यः प्रकाशयन् शौर्यमिवाजिरङ्गे ॥४२ अरातिना मूर्धनि मुद्गरेण प्रताडितो लोहमयेन कश्चित् । मुमोच भूमौ विवशोऽपि नाङ्गमहार्यधैर्यप्रसरो हि धीरः ॥४३ अभेद्यमप्यावरणं विभिद्य प्राणान्भटस्याशु जहार बाणः । फलेन शातेन विजितोऽपि पूर्ण दिने को न हिनस्ति सत्त्वान् ॥४४ को मार डाला ॥ ३७॥ कोई एक घुड़सवार विवश हो लोहे के वाणों से रागबन्ध-पलान में कीलित हो गया था इसीलिये वह उछलते हुए भी घोड़ा से नहीं गिरा था सो ठीक ही है क्योंकि दृढ़ता से युक्त मनुष्यों को कष्ट नहीं होता ॥ ३८ ॥ दाहिने भुजदण्ड के कटजाने पर किसी ने बाँयें हाथ से तलवार लेकर आगे प्रहार करनेवाले शत्रु को मार डाला सो ठीक ही है क्योंकि विपत्ति के समय बाँया हाथ भी उपयोग को प्राप्त होता है अर्थात् काम आता है ॥३९॥ श्रेष्ठ घोड़ा ने वाणों से क्षतशरीर होकर भी न तो पहले का वेग छोड़ा, न शिक्षा छोड़ी और न घुड़सवार की अधीनता को ही छोड़ा सो ठीक ही है क्योंकि उच्चजाति का प्राणी दुःख और सुख में समान ही रहता है।॥४०॥ जिसके कण्ठ में लाल चामरों का समूह बँधा हुआ था, जिसका आसन शून्य था, जो सामने शीघ्रता से दौड़ रहा था तथा जो हाथियों की घटा को भ्रष्ट कर रहा था-इधर-उधर भगा रहा था ऐसा घोड़ा उस समय न केवल नाम से हरि था किन्तु क्रिया से भी हरि-सिंह था ॥४१॥ लोह के बाणों से खण्डित शरीर होने पर भी घोड़ा वेग से इधर-उधर दौड़ रहा था उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों अपने मरे हुए स्वामी के शौर्य को रण की रङ्गभूमि में शीघ्र ही प्रकाशित कर रहा था ॥४२॥ शत्र ने लोहे के मुग्दर से किसी के सिर पर प्रहार किया परन्तु विवश होनेपर भी उसने अपना शरीर भूमि पर नहीं छोड़ा सो ठीक ही है क्योंकि धीर वही कहलाता है जिसके धैर्य का प्रसार अहार्य होता है । ४३ ।। तीक्ष्ण अनी से रहित होनेपर भी वाण ने अभेद्य आवरण को भेद कर शीघ्र ही सुभट के प्राणों को हर लिया सो ठीक ही है क्योंकि दिन पूर्ण होनेपर कौन पुरुष जीवों को नष्ट नहीं करता है ? ॥ ४४ ॥ जो अपने शरीर के द्वारा वाणों से स्वामी की रक्षा कर रहा था, तथा सभी ओर जिसका बड़ा धैर्य अनुपम था ऐसे किसी योद्धा ने क्षण भर में १. छिन्नपि दक्षिणभुजे करवालवल्ली वामे करे विरचयन्दिरपुमाप सादी। वीरस्य तस्य रिपुखण्डनकलिकायामक्षीणशक्तिरगमत्स हि दक्षिणत्वम् ॥५५॥ -जीवन्धर, लम्भ १०
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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