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________________ वर्धमानचरितम् वामाज्रिमादाय करेण गाढमाक्रम्य पादेन च दक्षिणाङिघ्रम् । विपाटयामास भटं मदेभः क्रद्धः पुरस्स्थं सहसा निपात्य ॥२६ आदाय हस्तेन भटो गजेन क्षिप्तोऽपि खे खेलरुचिः कृपाण्या। तत्कुम्भपीठं प्रहरन्विरेजे ततः पतन्संभ्रमहीनचित्तः ॥२७ विवृत्तहस्तोज्झितशीकरौधैरिभा निरासुः शरदारितानाम् । आधोरणानां व्रणमोहखेदं को निर्दयः संश्रयिणां विपत्तौ ॥२८ योधा विरेजुः शरपूरिताङ्गाः सुनिश्चलानामुपरि द्विपानाम् । तापेन विश्लेषितपत्रशोभास्त्वक्सारगुल्मा इव पर्वताग्ने ॥२९ आमूललूनायतहस्तदेशेश्च्योतत्कदुष्णास्रमहाप्रवाहः । रेजे गजस्तुङ्ग इवाञ्जनाद्रिः सानोः पतद्गैरिकनिझरीम्बुः ॥३० मूमिपास्य व्रणदुःखजातां हन्तुं प्रवृत्ताः पुनरप्यरातीन् । महाभटास्ताञ्जगहः कथञ्चित्तत्संग्रहं को न करोति धीरः ॥३१ में सब ओर घूमने लगा जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों पराक्रम दिखानेवाले किसी वीर की विजय पताका लेकर ही घूम रहा था ॥ २५ ॥ किसी क्रुद्ध मदमाते हाथी ने सामने खड़े हुए सुभट को शीघ्र ही गिरा कर सूंड से उसके बाँये पैर को मजबूती से पकड़ लिया और अपने पैर से उसके दाहिने पैर पर चढ़ कर उसे चीर दिया ॥ २६ ॥ हाथी ने किसी सुभट को सूंड़ से पकड़ कर आकाश में फेंक दिया परन्तु वह पक्का खिलाड़ी था इसलिये गिरते समय तलवार से हाथी के गण्डस्थल पर प्रहार करता हआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों उसके चित्त में किसी प्रकार की घबड़ाहट थी ही नहीं ॥ २७ ॥ हाथियों ने घुमाई हुई सूड़ों द्वारा छोड़े गये जल के छींटों के समूह से वाणों से विदारित महावतों के घावों से उत्पन्न मूर्छा के खेद को दूर किया था सो ठीक ही है क्योंक अपना आश्रय लेनेवाले मनुष्यों की विपत्ति में निर्दय कौन होता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ २८ ॥ जिनके शरीर बाणों से परिपूर्ण थे ऐसे योद्धा निश्चल खडे हए हाथियों के ऊपर उस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि पर्वत के अग्रभाग पर गर्मी के कारण पत्तों की शोभा से रहित बाँसों की झाड़ियाँ सुशोभित होती हैं ॥ २९ ॥ जिसके जड़ से कटे हुए लम्बी सूंड़ के स्थान से कुछ-कुछ गर्म खून का बहुत भारी प्रवाह झर रहा था ऐसा उन्नत हाथी उस अञ्जनगिरि के समान सुशोभित हो रहा था जिसकी कि शिखर से गेरू के झरने का जल गिर रहा हो ॥ ३० ॥ घावों के दुःख से उत्पन्न मूर्छा को दूर कर जो फिर से शत्रुओं को मारने के लिये प्रवृत्त हुए थे उन्हें महायोद्धाओं ने किसी तरह, पकड़ कर रक्खा था सो ठीक ही है क्योंकि घायलों का संग्रह कौन धीर वीर नहीं करता है ? इस श्लोक का एक भाव यह भी हो सकता है कि जो महायोद्धा घावों के दुःख से उत्पन्न मूर्छा को दूर कर फिर से शत्रुओं को मारने के लिये उद्यत हुए थे उन्होंने उन शत्रुओं को किसी तरह फिर भी पकड़ लिया सो ठीक ही है क्योंकि कौन धीर मनुष्य शत्रुओं का संग्रह नहीं करता १. कश्चिद्गजः प्रतिभटं चरणे गृहीत्वा संभ्रामयन्दिवि रुषा परुष प्रचारः । चिक्षेप दूरतरमूर्ध्वमयं च मानी द्रागेत्य कुम्भयुगलीमसिना बिभेद ॥४९।। २. देशात् श्चोतत् म०। ३. निर्झराङ्कः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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