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________________ वर्धमानचरितम् रथवाजिखुराभिघातजः क्षितिरेणुः खररोमधूसरः। सकलं न जगन्मलीमसं विदधे शत्रुयशश्च तत्क्षणम् ॥६४ न चचाल धरैव केवलं गुरुसेनाभरपीडिता तदा। उरसः कमलापि विद्विषः पवनोधूतलतेव मूलतः ॥६५ विगलन्मदवारिनिर्झरा अपि दूरोकृतरोषवृत्तयः । अभिनेतृवशेन लीलया ललितं गन्धगजाः प्रतस्थिरे ॥६६ तडिदुज्ज्वलरुक्ममण्डनांस्तुरगाँश्चञ्चलकण्ठचामरान् । द्रुतमध्यविलम्बितक्रमानधिरुह्य प्रययुस्तुरङ्गिणः ॥६७ अधिरुह्य यथेष्टवाहनं धवलच्छत्रनिवारितातपाः । गमनोचितवेषधारिणः परचनक्षितिपास्तमन्वयुः ॥६८ बलरेणुभयेन भूतलं प्रविहायोत्पतितं वियत्यपि । पिदधे रजसा परीत्य तत्प्रथमं खेचरसैन्यमाकुलम् ॥६९ इतरेतररूपभूषणस्थितियानादिनिरीक्षणोत्सुकम् । अभवत्तदधोमुखोन्मुखं चिरकालं गमने बलद्वयम् ॥७० जवनिश्चलकेतनोत्करं वरमास्थाय विमानमुन्नतम् । खचराधिपतिविलोकयन्ससुतः सैन्यमगाद्विहायसा ॥७१ के ऊपर लगी हुई कदली ध्वजाओं के समूहों ने न केवल आकाश को आच्छादित किया था किन्तु अन्य राजाओं के लिये अत्यन्त असह्य चक्रवर्ती-अश्वग्रीव के समस्त तेज को भी आच्छादित कर दिया था ॥ ६३ ॥ रथों तथा घोड़ों के खुरों के प्रहार से उत्पन्न पृथिवी की रासभरोम के समान मटमैली धूलि ने न केवल समस्त जगत् को मलिन किया था किन्तु शत्रु के यश को भी तत्काल मलिन कर दिया था ॥६४॥ उस समय सेना के बहुत भारी भार से पीड़ित पृथिवी ही केवल चञ्चल नहीं हुई थी किन्तु पवन से कम्पित लता के समान शत्रु के वक्षःस्थल की लक्ष्मी भी मूल से चञ्चल हो उठी थी॥६५॥ मदजल के झरनों के झरते रहने पर भी जिन्होंने क्रोधपूर्ण वृत्ति को दूर कर दिया था ऐसे गन्धगज-मदस्रावी हाथी, महावत के अधीन हो लीलापूर्वक चल रहे थे ।। ६६ ॥ जिनके सूवर्णमय आभूषण विद्युत के समान उज्ज्वल थे, जिनके गले में चञ्चल चमर लटक रहे थे तथा जो कभी शीघ्र कभी मध्यम और कभी विलम्ब की चाल से चल रहे थे ऐसे घोड़ों पर सवार होकर घुड़सवारों ने प्रमाण किया ।। ६७ ।। सफेद छत्रों से जिनका घाम दूर हो गया था, तथा जो गमन के योग्य वेष को धारण किये हुए थे ऐसे अन्य दल के राजा अपने-अपने इष्ट वाहनों पर सवार होकर उसके पीछे-पीछे चल रहे थे॥६८॥ यद्यपि विद्याधरों की सेना, स्थल सेना की धूलि के भय से पृथिवी तल को छोड़ कर आकाश में उड़ गई थी तो भी उस घबड़ाई हुई विद्याधरों की सेना को धूलि ने सबसे पहले घेर कर आच्छादित कर दिया था ॥ ६९ ।। परम्पर एक दूसरे के रूप, आभूषण, स्थिति तथा वाहन आदि के देखने में जो उत्सुक थीं ऐसी मनुष्य और विद्याधरों की सेनाएँ गमन करते समय चिरकाल तक अधोमुख और ऊर्ध्वमुख हुई थी अर्थात् मनुष्यों की सेना ऊर्ध्वमख थी और विद्याधरों की सेना अधोमख थी॥७०॥ जिसकी पताकाओं का समह वेग से निश्चल था ऐसे उत्कृष्ट तथा ऊँच विमान पर बैठ कर विद्याधरों का राजा ज्वलनटी अपने पुत्रों के साथ
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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