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________________ सप्तमः सर्गः ७७ उपयाति जडोऽपि पाटवं सहसोपघ्नविशेषतः परम् । करवालगतः पयोलवः करिणां किं न भिनत्ति मस्तकम् ॥१० भवतामपि वाग्मिनां पुरो यदहं वच्मि तदस्य चापलम् । अधिकारपदस्य कोऽन्यथा गदितुं प्रारभते सचेतनः ॥११ त्रिभिरेव भवद्भिजितैर्नयशास्त्रं प्रतिभान्वितैधृतिम् । भुवनं सचराचरं यथा पवनैरुन्नतसंहतात्मकैः ॥१२ ननु सर्वविदोऽपि राजते न वचः श्रोतरि बोधजिते । परिणेतरि नष्टलोचने सफलः किं नु कलत्रविभ्रमः ॥१३ पुरुषस्य परंविभूषणं परमार्थ श्रुतमेव नापरम् । प्रशमो विनयश्च तत्फलं प्रकट नीतिविदः प्रचक्षते ॥१४ विनयप्रशमान्वितं सदा स्वयमेवोपनमन्ति साधवः । स च साधुसमागमो जगत्यनुरागं विदधाति केवलम् ॥१५ अनुरागपैराजितं जगत्सकलं किङ्करतां प्रपद्यते। स्वयमेव महीपतेरतो विनयं च प्रशमं च मामुचः ॥१६ हरिणानपि वेगशालिनो ननु गृह्णन्ति वने वनेचराः। विजगेयगुणेन किं गुणः कुरुते कस्य न कार्यसाधनम् ॥१७ के बिम्ब का आश्रय लेनेवाला मृग मलिन होनेपर भी प्रकाशित होने लगता है ॥९॥ जड-मूर्ख मनुष्य भी आश्रय की विशेषता से शीघ्र ही उत्कृष्ट सामर्थ्य को प्राप्त हो जाता है सो ठीक ही है; क्योंकि तलवार पर चढ़ा हुआ पानी का कण भी क्या हाथियों के मस्तक को विदीर्ण नहीं कर देता? ॥ १०॥ आप जैसे कुशलवक्ताओं के आगे भी जो मैं बोल रहा हूँ वह इस मन्त्रिपद के अधिकार की चपलता है अन्यथा ऐसा कौन सचेतन–समझदार मनुष्य है जो आप लोगों के सामने बोलना प्रारम्भ करे?॥ ११॥ जिस प्रकार उन्नत और घनता को प्राप्त तीन वातवलयों के द्वारा चराचर सहित यह समस्त लोक धारण किया गया है उसी प्रकार सबल तथा प्रतिभा से युक्त आप तीनों-ज्वलनजटी, प्रजापति और विजय के द्वारा ही नीतिशास्त्र धारण किया गया है ॥ १२॥ यदि श्रोता ज्ञान से रहित है तो उसके सामने सर्वज्ञ का भी वचन सुशोभित नहीं होता सो ठीक ही है; क्योंकि अन्धे पति के सामने स्त्री का हावभाव क्या सफल होता है ? अर्थात् नहीं होता ॥१३॥ नीति के जानकार कहते हैं कि शास्त्रज्ञान ही मनुष्य का उत्कृष्ट और सच्चा आभूषण है तथा प्रशम और विनय ही उस शास्त्रज्ञान का प्रकट फल है ॥ १४ ॥ विनय और प्रशम से युक्त मनुष्य के पास साधु स्वयं आते रहते हैं तथा वह साधुओं का समागम जगत् में अद्वितीय अनुराग को उत्पत्र करता है ॥ १५ ॥ अनुराग से पराजित हुआ समस्त संसार स्वयं ही राजा की किङ्करता को प्राप्त होता है इसलिये तुम विनय और प्रशम को मत छोड़ो ॥ १६ ॥ वन में भील, अपने संगीतगुणों से वेगशाली हरिणों को भी निश्चय ही पकड़ लेते हैं सो ठीक ही है; क्योंकि गुण किस की कार्यसिद्धि नहीं करता? अर्थात् सभी की करता है ॥ १७ ॥ उपाय के जाननेवाले लोगों ने कहा है कि कठोर म० । २. सकलः म० । ३. पराजितं म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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