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________________ षष्ठः सर्गः ७५ वसन्ततिलकम् रौप्ये गिरौ धनदरक्षितदिग्विमागे नानासमृद्धिरलका नगरी रराज । यस्यां बभूव विभवेन मयूरकण्ठोनीलाञ्जनातनुल्होऽश्वगलोर्द्धचक्रो ॥६९ शालिनी अश्वग्रीवे दुर्निवारोरुवीर्ये संभूयान्यैः खेचरैरुत्थितेऽस्मिन् । यत्कर्तव्यं तद्रहस्यात्मनीनैः सभ्यैः साधं कार्यमालोचयामः १७० हरिणी ज्वलनजटिनः श्रुत्वा वाणीमिति क्षितिनायके सचिवसमिति भूयो भूयो विवृत्य विपश्यति । स्वयमुदचलच्चित्तं ज्ञात्वा तदा परिषत्प्रभोरवसरसमावृत्तिनृणां फलं मतिसम्पदः ॥७१ इत्यसगकृते श्रीवर्धमानचरितेऽश्वनीवसभाक्षोभो नाम षष्ठः सर्गः । सप्तमः सर्गः वियोगिनी अथ मन्त्रविदामुपहरे गणमाहूय सखेचराधिपः। अभयं विजयेन संगतो निजगादेति वचः प्रजापतिः॥१ विजयार्धपर्वत पर नाना प्रकार की समृद्धि से सम्पन्न अलका नाम की नगरी सुशोभित है। जिस अलका नगरी में मयूरग्रीव और नीलाञ्जना के शरीर से उत्पन्न अश्वग्रीव नाम का अर्द्धचक्री हुआ है॥ ६९ ॥ दुनिवार बहुत भारी पराक्रम से युक्त अश्वग्रीव अन्य राजाओं के साथ मिल कर युद्ध के लिये खड़ा हुआ है। इस स्थिति में जो कार्य करने योग्य है उस पर हम लोग एकान्त में आत्महितकारी सभ्यों के साथ मिल कर विचार करें॥ ७० ॥ ज्वलनजटी की इस प्रकार की वाणी सुन जब राजा प्रजापति बारबार मुड़ कर मन्त्रिमण्डल की ओर देखने लगे तब स्वामी का अभिप्राय जान कर मन्त्रिमण्डल स्वयं उठ कर खड़ा हो गया-विचार करने के लिये तैयार हो गया सो ठीक ही है, क्योंकि अवसर के अनुकूल कार्य करना ही मनुष्यों की बुद्धिरूपी सम्पदा का फल है॥७१॥ इस प्रकार असग कविकृत श्री वर्द्धमानचरित में अश्वग्रीव की सभा के क्षोभ का वर्णन करनेवाला छठवाँ सर्ग समाप्त हुआ। सातवाँ सर्ग अथानन्तर ज्वलनजटी नामक विद्याधरों के राजा और विजय नामक अपने ज्येष्ठपुत्र से सहित राजा प्रजापति ने एकान्त में मन्त्र के ज्ञाता मन्त्रियों के समूह को बुलाकर निर्भयतापूर्वक इस १. मयूरकण्ठनीलाञ्जना म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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