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षष्ठः सर्गः
आलम्बनं प्रतिभये सति मानभाजां वंशोन्नतः प्रथितसारगुणैवशुद्धः । श्रीमानसाधुपरिवारतिरोहितात्मा प्राप्नोति मानदे कलङ्कमसिश्च सद्यः ॥४९ रक्षापरा समभिवाञ्छित कार्यसिद्धेः सिद्धाञ्जनैकगुलिका तिमिरस्य दृष्टेः । लक्ष्मीलतावलयवर्द्धनवारिधाराक्षान्तिः सतामभिमता भुवि केन नास्तु ॥५० न श्रेयसे भवति विक्रमशालिनोऽपि कोपः परेष्वतिबलस्य समुन्नतेषु । अम्भोधरान्समभिलङ्घय मृगाधिराजो निष्कारणं स्वयमुपैति न किं प्रयासम् ॥५१ युक्तात्मपक्षबलगवंतयैव मूढः स्वस्येतरस्य च समीक्ष्य न शक्तिसारम् । उद्यञ्जिगीषुरभिवह्निपतत्पतङ्गप्राप्यां दशामनुभवत्यचिरादचिन्त्याम् ॥५२ तुल्ये रिपो जगति देवपराक्रमाभ्यां सन्धिः प्रभोरभिहितो नयशास्त्रविद्भिः । अभ्युन्नतो भवति पूज्यतमश्च ताभ्यां होनोऽपि सन्मतिमतां सहसा न निन्ाः ॥५३
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पृथिवी में पद पद पर कारण के बिना ही क्रोध करता है उसके साथ भला पुरुष भी मित्रता नहीं करना चाहता सो ठीक ही है क्योंकि विषवृक्ष मन्द वायु से मिलते हुए पुष्प समूह से नम्रीभूत होने पर भी क्या भ्रमरों के समूह से सेवित होता है ? अर्थात् नहीं होता ||४८ || हे मानद ! हे मान को खण्डित करने वाले ! जो भय उपस्थित होने पर मानी मनुष्यों के लिये आलम्बन स्वरूप है अर्थात् भय का अवसर आने पर जो मानशाली मनुष्यों की रक्षा करता है, जो वंश से उन्नत है—उच्च कुलीन है तथा दया- दान-दाक्षिण्य - औदार्यं आदि प्रख्यात गुणों से विशुद्ध है ऐसा श्रीमान् मनुष्य दि असाधु परिवार से तिरोहितात्मा है—दुष्ट जनों के संसर्ग से दूषित है, तो वह शीघ्र कलङ्क - लोकापवाद को प्राप्त होता है । इसी प्रकार वह तलवार भी, जो कि भय का अवसर आने पर मानी मनुष्यों का आलम्बन है— रक्षक है, उसकी आत्मा का विकास नहीं हो पाता है, वंश-धनुष के जन्मदाता बाँस से उत्कृष्ट है, तथा तीक्ष्णता आदि प्रसिद्ध गुणों से युक्त है, यदि असाधु परिवारखराब आवरण - दूषित म्यान से तिरोहितात्मा - छिपी है तो वह शीघ्र ही कलङ्क को प्राप्त होती है- प्रशंसा को प्राप्त नहीं होती ॥ ४९ ॥ जो इच्छित कार्यसिद्धि की रक्षा करने में तत्पर रहती है, जो दृष्टि के तिमिर रोग को नष्ट करने के लिये सिद्ध किये हुए अञ्जन की अद्वितीय गुटिका है, और जो लक्ष्मीरूपी लता समूह की वृद्धि करने के लिये जलधारा है ऐसी क्षमा, पृथिवी में किस कारण से सत्पुरुषों के लिए इष्ट न हो अर्थात् सभी कारणों से इष्ट हो || ५०॥ पराक्रम से सुशोभित होने पर भी बलिष्ठ मनुष्य का दूसरे समुन्नत मनुष्यों पर क्रोध करना कल्याण के लिये नहीं होता क्योंकि मेघों के प्रति छलाँग भर सिंह स्वयं ही बिना कारण क्या खेद को प्राप्त नहीं होता ? अर्थात् अवश्य होता है ॥५१॥ अपने पक्षबल के गर्व से युक्त होने के कारण ही जो अज्ञानी, अपनी तथा दूसरे की शक्ति का विचार किये बिना विजय की इच्छा रखता हुआ शत्रु की ओर अभियान करता है वह शीघ्र ही अग्नि के सन्मुख पड़ते हुए फुनगे के द्वारा प्राप्त करने योग्य उस दशा का अनुभव करता है जिसका कि उसे कभी विचार ही नहीं आया था ||५२ || जो शत्रु, दैव और पराक्रम से अपने समान है उसके
१. आलम्बनः म० । २. मानं द्यति खण्डयतीति मानद स्तत्सम्बुद्धी हे मानद ! ३, गर्वितया म० ।
४. दण्ड्यः म० ।