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________________ ६४ वर्धमानचरितम् विद्याप्रभावरचिताद्भुतसौघकूटकोटिस्थिताम्बरचरीजनलोलनेत्रैः । प्रत्युत्थितेन सहसा सह खेचरेशा प्रीतिप्रसारितदृशा ददृशे नरेन्द्रः ॥४ यानात् ससंभ्रमभाववतीर्यं दूरादासन्नचारुभटदत्तकरावलम्बौ । अन्योऽन्यसन्मुखमभीयतुरुत्सुकौ तौ पादद्वयेन धेरणीधरणीधनाथ ॥५ गाढोपगूहनसुधासलिलेन सिक्तः सम्बन्धचन्दनतरुः सममेव ताभ्याम् । जीर्णोऽपि सन्नव इवाङ्कुरितो विरेजे केयूरकोटिमणिरश्मिभिरुन्मिषद्भिः ॥६ तस्यार्ककीर्ति रवनीश्वरनायकस्य दुरानतेन शिरसा चरणौ ववन्दे । पित्रा तदानभिहितोऽपि कटाक्षपातैर्नैसर्गिको हि महतां विनयो महत्सु ॥७ लक्ष्मीप्रतापबलशौर्यमतिश्रुताद्यैर्लोकाधिकावपि समं विजयत्रिपृष्टौ । प्रीत्या प्रणेमतुरुभौ खचराधिपं तं स्तब्धो महान्गुरुजने न गुणाधिकोऽपि ॥८ आलिङ्गय तुङ्गतरदेहमनङ्गकल्पं तावर्ककीर्तिममलेन्दुसमान कीर्तिम् । प्रीतौ बभूवतुरुभावपि भूरिशोभौ केषां तनोति न मुदं प्रियबन्धुसङ्गः ॥९ था, जिनके वंश प्रसिद्ध थे तथा जो मार्ग में अपने ही प्रतिबिम्बों के समान जान पड़ते थे ऐसे राजकुमारों से अनुगत राजा वन को प्राप्त हुआ । भावार्थ - घोड़ों पर सवार अनेक राजकुमार मार्ग में उसके पीछे-पीछे चल रहे थे ||३|| विद्या के प्रभाव से निर्मित आश्चर्यकारी महलों के शिखरों के अग्रभाग में स्थित विद्याधारियों के चञ्चल नेत्रों के साथ जो अगवानी के लिये सहसा -उठकर खड़ा हुआ था, तथा प्रीति से जिसके नेत्र विस्तृत हो रहे थे ऐसे विधाधरों के ज्वलनजटी ने राजा प्रजापति को देखा || ४ || जो घबड़ा कर दूसरे से ही वाहन से नीचे उतर गये थे, निकटवर्ती सुन्दर योद्धा जिनके लिये हाथों का आलम्बन दे रहे थे, तथा जो उत्सुकता से भरे थे ऐसे दोनों ही पृथिवी और विजयार्ध के प्रजापति और ज्वलनजटी एक दूसरे के सम्मुख पैदल ही चल रहे थे ।। ५ ।। गाढालिङ्गन रूपी अमृतजल के द्वारा जिसे दोनों ने एक साथ सींचा था ऐसा सम्बन्ध रूपी चन्दन का वृक्ष जीर्ण होने पर भी निकलती हुई केयूर के अग्रभाग में संलग्न मणियों की किरणों से नवीन की तरह अङ्कुरित हो उठा था ।। ६ ।। ज्वलनजटी के पुत्र अर्ककीर्ति से यद्यपि उस समय उसके पिता ने कटाक्षपातों - नेत्र को संकेतों से कुछ कहा नहीं था तो भी उसने दूर से ही झुके हुए शिर से राजाधिराज प्रजापति के चरणों को नमस्कार किया था सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों के प्रति महापुरुषों में विनय स्वाभाविक ही होती है ॥७॥ विजय और त्रिपृष्ट यद्यपि समानरूप से लक्ष्मी, प्रताप, बल, शौर्य, बुद्धि और शास्त्र ज्ञान आदि के द्वारा समस्त लोगों में श्रेष्ठ थे तो भी दोनों ने विद्याधरों के अधिपति ज्वलनजटी को प्रीतिपूर्वक प्रणाम किया सो ठीक ही है क्योंकि जो महान् होता है वह गुणों से अधिक होने पर भी गुरुजनों के विषय में अहंकारी नहीं होता ॥ ८ ॥ जिसका शरीर अन्यन्त ऊँचा था, जो कामदेव के समान था तथा जिसकी कीर्ति निर्मल चन्द्रमा के समान थी ऐसे अर्ककीर्ति का आलिङ्गन कर बहुतभारी शोभा से युक्त विजय और त्रिपृष्ट- दोनों ही प्रसन्न हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि प्रियबन्धुओं का समागम किनके हर्ष को विस्तृत नहीं करता ? अर्थात् सभी के हर्ष को विस्तृत करता है ॥ ९ ॥ १. धरणी धरणीधनाथी म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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