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________________ ५८ वर्धमानचरितम् 'स जनान्तमैक्षत मृगाधिपतेः प्रथयन्तमन्तकनिभस्य गतिम् । नखकोटि विच्युतनरान्त्रचयग्रहणाकुलैर्नभसि गृद्धकुलैः ॥८० हतमानुषास्थिपरिपाण्डुरितं नगमेत्य रुन्द्रविवरे शयितम् । पटहैरबोधयदभिप्रहतैर्ध्वजिनीरवैरपि मृगाधिपतिम् ॥८१ प्रतिबोधजृम्भणविभीममुखः परिकेकराक्षमवलोक्य बलम् । उदगात्प्रसार्य परिभुग्नतनुं स शनैः शनै विधुतपिङ्गसटः ॥ ८२ अति गजिलैर्ध्वनयतः ककुभो विवृतास्यकन्दर मुदग्रतनोः । गतभीरतिष्ठदभिलङ्घयतो हरिरेक एव पुरतः स हरेः ॥ ८३ विनियम्य दक्षिणकरेण शिलाकठिनौ तदग्रचरणावदयम् । इतरं निवेश्य वदने स करं समपातयन्मृगर्पात सहसा ॥८४ स रुषा वर्मानिव दवाग्निकणान्नयनद्वयेन नवरक्तभृता । विफलीकृतोद्यमबलो बलिना विवशो मुमोह हरिरेकपदे ॥८५ मृगविद्विषं नवमृणालमिव प्रविदार्य तस्य रुधिरैरवनेः । शमयाञ्चकार परितापचयं स तदा नवाम्बुभिरिवाम्बुधरः ॥८६ निजसाहसेन महतापि महानुपयाति नूनमवनौ न मुदम् । यदन्यवध्यमपि केसरिणं स निहत्य निर्विकृतमास्त हरिः ॥८७ की आँतों के समूह को ग्रहण करने में व्यग्र आकाश में मँडराते हुए गुद्धपक्षियों के समूह से यम-तुल्य सिंह की गति को सूचित कर रहा था |८०|| मृत मनुष्यों की हड्डियों से अत्यन्त सफेद-सफेद दिखने वाले पर्वत पर जाकर उसकी विशाल गुहा में सोये हुए सिंह को ताडित नगाड़ों और सेना के शब्द से सिंह को जगाया ।। ८१ ।। जागने के समय होनेवाली जमुहाई से जिसका मुख अत्यन्त भयंकर था तथा जिसने धीरे-धीरे अपनी पीली जटाओं को कम्पित किया था ऐसा वह सिंह कनखियों से सेना को देख झुके हुए शरीर को फैलाकर खड़ा हो गया ।। ८२ ।। जो मुखरूपी गुहा को खोलकर तीव्र गर्जनाओं के द्वारा दिशाओं को शब्दायमान कर रहा था, जिसका शरीर ऊँचा था तथा जो सम्मुख छलाँग भर रहा था ऐसे सिंह के आगे निर्भय त्रिपृष्ट अकेला ही खड़ा हो गया ।। ८३ ।। उसने शिला के समान कठोर उसके दोनों चरणों को तो निर्दयतापूर्वक दाहिने हाथ से कसकर पकड़ा और दूसरा हाथ उसके मुँह में ठूंसकर उसे देखते-देखते गिरा दिया ॥ ८४ ॥ जो क्रोध से नवीन रुधिर को धारण करनेवाले दोनों नेत्रों से दावानल के कणों को उगल रहा था तथा बलवान् त्रिपृष्ट के द्वारा जिसका उद्यम और बल निष्फल कर दिया गया था ऐसा वह सिंह विवश हो एक साथ मूच्छित हो गया ।। ८५ ।। जिस प्रकार मेघ नवीन जल के द्वारा पृथिवी के संतापसमूह को शान्त कर देता है उसी प्रकार उस त्रिपृष्ट ने नूतन मृणाल के समान सिंह को चीरकर उसके रुधिर से पृथिवी के संताप समूह को तत्काल शान्त कर दिया ।। ८६ ।। सममुच महान् पुरुष अपने बहुत भारी साहस द्वारा भी पृथिवी पर हर्ष को प्राप्त नहीं होता । यही कारण है कि वह त्रिपृष्ट जो दूसरे से नहीं मारा जा सकता था ऐसे सिह को भी मार कर निर्विकार रहा ॥ ८७ ॥ तदनन्तर नारायण त्रिष्ट १. पङ्क्तिरियं प्रतौसप्तसप्ततितमस्य श्लोकस्यपूर्वार्धरूपा वर्तते । २. मृगाधिपतिः म० । ३. अथगर्जितै न० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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