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________________ ( ३८१ ) वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षति पुण्यानि पुराकृतानि ॥ ४३ ॥ भावार्थ - वनमां, रणसंग्राममां, शत्रु, जळ के अग्निना मध्यभागमां, महासागरमां अथवा तो पर्वतना म स्तकपर प्राणी सुतेल होय, प्रमत्त के बुरी अवस्थामां पडेल होय, छतां पूर्वे करेल पुण्यो तेनी रक्षा करे छे. ४३ वैरूप्यं व्याज पिंडः स्वजनपरिभवः कार्यकालानिपातो विद्वेषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः । पारुष्यं तीर्थसेवा कुलगुरुचलना धर्मकामार्थहानिः कष्टं भो षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ ४४ ॥ भावार्थ - विरुपता, कपटभाव, स्वजनथी परिभव, कार्य-कालनी भ्रष्टता, विद्वेष, ज्ञाननो नाश, स्मरण अने मतिनो भ्रंश, संत जनो साथै वियोग, कठिनता, तीर्थसेवा तथा कुलगुरुथी विमुखता, तथा धर्म, काम अने अर्थनी हानि - अहो ! बहु खेदनी वात छे के म
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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