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________________ ( २२४ ) जेम परस्त्रीमा आसक्त रहे छे, तेम पोतानी गृहवि. द्यामां प्रायः शिष्यो आदररहित होय छे. ३३ न च राजभयं न च चौरभयं इह लोकसुखं परलोकहितम् । वरकीर्तिकरं नरदेवनतं श्रमण त्वमिदं रमणीयतरम् ॥ ३४॥ भावार्थ-अहो ! ज्यां राजभय, के चोरभय नथी, जेथी आ लोकमां सुख अने परलोकमां हित थाय छे, जे श्रेष्ठ कीर्तिने उत्पन्न करनार छे अने जेने देवो तथा मनुष्यो नमे छे-एबुं श्रमणत्व-साधुपणुं अत्यंत रमणीय ग्रहण करवा योग्य छे. ३४ निर्दयत्वमहंकार-स्तृष्णा कर्कशभाषणम् । नीचपात्रप्रियत्वं च पंच श्रीसहचारिणः॥३५॥ मावार्थ-निर्दयता, अहंकार, तृष्णा, कठोर भाषण अने नीच पात्रनी प्रियता-ए पांच दोषो लक्ष्मीना सहचारीसर्वदा साथेज रहे छे. ३५ नयेन नेता विनयेन शिष्यः शीलेन लिंगी
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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