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________________ ( १९९ ) मावार्थ -- जगतमां आ बे पुरुष कदापि सुखी थइ शकता नथी के जे धन-हीन छतां अनेक प्रकारनी इच्छाओ करे अने जे ऐश्वर्य पुण्यहीन - रहित छतां कोपायमान थाय छे. ६३ द्वाविमौ पुरुषौ लोके स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः । प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥६४॥ भावार्थ - जगतमां आ बे पुरुषो स्वर्गनी पण उपर रहे तेवा होय छे के जे पोते सत्तावान् छतां क्षमाधारी होय अने जे पोते निर्धन छतां दान आपनार होय छे. ६४ दारियान्मरणाद्वा मरणं संरोचते न दारिद्यम् । अल्पक्लेशं मरणं दारिद्र्यमनंतकं दुःखम् ॥ ६५ ॥ मावार्थ - हे मित्र ! दारिद्र्य अने मरण बनेमांथी मने मरण वधारे पसंद छे, पण दारिद्र्य नथी. कारण के मरणथी अल्प दुःख थाय छे अने दारिद्र्य निरंतर अनंत दुःखने उपजावनार छे. ६५ दीपनिर्वाणगंधं च सुहृद्वाक्यमरुंधतीम् । न जिघंति न शृण्वंति न पश्यंति गतायुषः ॥६६॥
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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